सारांश
शरीर एवं चेतना से सन्दर्भित प्राच्य एवं पाश्चात्य की विभिन्न दार्शनिक चिन्तनधारा परिलक्षित होती आई है । पुनश्च वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इस विषय के ऊपर अनेकविध मन्तव्य प्रकट किये गये हैं । प्रस्तुत लेख में आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान के पुट को संयोजित करते हुए ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन की ओर से एक विशेष अनुशीलन है, जिसमें भौतिक तत्त्व शरीर एवं चैतन्य शक्ति आत्मा के क्रियान्वयन के अन्तर को स्पष्टतया विवेचित किया गया है । मनुष्य केवलमात्र अणुओं से विनिर्मित एक तात्विक शरीर नहीं है, अपितु मूलतः स्वयं में एक आत्म-अभिज्ञ चैतन्य आध्यात्मिक ऊर्जा है जो जीवित शरीर को चलाने में पूर्णतया सक्षम है । अभौतिक सत्ता आत्मा ही अपनी अन्तर्निहित शक्ति ‘चेतना’ के माध्यम से विचार, अनुभव आदि कार्य-व्यवहार संपादित करती है । ‘चेतना’ पूर्णतः एक अपदार्थिक सत्ता है जो स्वयं अपने स्वरूप में अस्तित्वमान रह सकती है । किन्तु मानव-शरीर का निर्माण केवल मानव-कोशिका से होता है जो जीवद्रव्य, केन्द्रक, कोशिका सार, गुणसूत्र, डी.एन.ए. आदि तत्त्वों के साथ-साथ जीवित-कोशिका से समन्वित होती है ।
उपक्रम
अनेक भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों अथवा वैज्ञानिकों ने चैतन्य आत्मा के विषय में अपने-अपने ढंग से विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । प्राचीन काल से ही वर्तमान पर्यन्त आत्मा का यथार्थ स्वरूप, अवस्थिति, यथार्थ अनुभवकर्ता कौन? इत्यादि प्रश्नों के ऊपर नानाविध चर्चाएँ होती आ रही हैं किन्तु अभी तक एक सर्वस्वीकृत मत प्रतिष्ठापित नहीं हो पाया है । इस प्रसंग में वैज्ञानिक निरीक्षण तथा आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से उक्त विषय का समीचीन विशेषण करने का प्रयत्न किया गया है । ब्रह्माकुमारीज आध्यात्मिक संस्थान के मुख्य प्रवक्ता अध्यात्म-विज्ञानी ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र स्वीय अद्वितीय कृति ‘अविनाशी नाटक’ में तथा अन्य कतिपय पुस्तकों में आध्यात्मिक ऊर्जा ‘आत्मा’ अथवा ‘पुरुष’ के सन्दर्भ में अनेकविध विज्ञान-सम्बन्धी उद्धरणों तथा सिद्धान्तों को प्रस्तुत कर ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन द्वारा प्रतिपादित एक सार्वभौमिक, सुनिश्चित तथ्य को उपस्थापित करते हैं । प्रस्तुत लेख, शरीर एवं चेतना सम्बन्धी विषय पर आधुनिक विज्ञान (मुख्यतः शरीर-क्रिया विज्ञान) तथा ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान के प्रकाश में एक विशेष अनुशीलन है ।
जीवित शरीर एवं चेतन्य आत्मा
ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान प्रतिपादन करता है- शरीर के अतिरिक्त एक ऐसी सत्ता है जिसकी तात्त्विक प्रकृति है- ‘चेतना’ । यह अन्तर्विवेकशील सत्ता अपने ‘जीवित’ शरीर का उपयोग प्रत्यक्षण तथा क्रियाओं के उपकरणों के संयोजन के रूप में करती है । वह एक ‘जीवित’ शरीर के माध्यम से सुख तथा पीड़ा का अनुभव करती है एवं उसे ही ‘आत्मा’ संज्ञा दी जाती है । शरीर ‘जीवित’ रहता है और मृत्यु को प्राप्त करता है, किन्तु आत्मा सदैव जीवित रहती है । मनुष्य स्वयं एक चैतन्य आत्मा है एवं उसका शरीर अभिव्यक्ति का एक अद्भुत माध्यम है ।
इस प्रसंग में वैज्ञानिकों द्वारा यह उद्घोषित किया गया है कि किसी जीवित प्राणी के मुख्य तीन गुणधर्म होते हैं- उपापचयन (Metabolism), संवृद्धि (Growth) एवं बहुगुणन (Multiplication) । प्राणी पर्यावरण से अणु संग्रहण करती है, स्वयं के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक सामग्रियाँ प्रतिधारण करती है तथा उच्छिष्ट पदार्थों का त्याग कर निरस्त कर दती है । वह अन्दर से वर्धित होती है तथा एक से दो होती हैं, इस प्रकार बहुगुणित होती रहती हैं । क्योंकि डी.एन.ए. (Deoxy Ribo-Nucleic Acid) अणुओं तथा जीनों (Genes) के पास संवृद्धि का कूट (Code) या संवृद्धि की आयोजना होती है, वे प्रतिकृतिकरण या द्विरूपकरण में सक्षम होते हैं इसलिए उसे ‘जीवन का अणु’ समझा जाता है । परन्तु डी.एन.ए. एन्जाइमों (Anzymes) अर्थात् डी.एन.ए. बहुकारक (Polymerase) के बिना अकेले ही स्वयं का द्विरूपकरण नहीं कर सकता । स्व-द्विरूपकरण संपूर्ण अविकल कोशिका का एक गुणधर्म है; डी.एन.ए. अणु स्वयं ही परख-नली मंन जनन नहीं करते । इसके अतिरिक्त डी.एन.ए. स्वयं अपने एन्जाइमों का द्विरूपकरण नहीं कर सकता । इसलिए, डी.एन.ए. जीवन के सामान्यतः सहमत लक्षणों को पूरा नहीं करता । डी.एन.ए. जीवित कोशिका के बाहर कार्य नहीं करता, बल्कि जीवित कोशिका के भीतर कार्य करता है ।
वैज्ञानिक जेम्स वाट्सन (James Watson) अपनी पुस्तक में वर्णन करते हैं- “जीवन एक समन्वित रासायनिक क्रिया है ।” किन्तु यह तथ्य बना रहता है कि समन्वित रासायनिक क्रिया तथा स्थितियों के माध्यम से जीवन निर्मित नहीं किया जा सकता है, बल्कि वह सामग्री निर्मित की जा सकती है जो जैव सामग्री के सदृश हो जिसे कोशिका-मुक्त तन्त्र (Cell-free system) कहते हैं । ए.टी.पी (Adenosine Triphosphate) के बाहर सक्रिय कारक एन्जाइमों, बहुकारकों तथा एटीपी को परख-नली में पाया जा सकता है एवं प्रोटीन संश्लेषण को देखा जा सकता है; किन्तु ये संरचनायें उपापचयन का कार्य कर सकती हैं, बढ़ सकती हैं तथा बहुगुणित हो सकती हैं तथापि ये स्वयं में जीवित रूप नहीं हैं ।
वैज्ञानिकों द्वारा (सिडनी फॉक्स द्वारा प्रोटीनॉएडों का संश्लेषण, अमीबा को संश्लेषित करने का प्रयत्न आदि) प्रयोग किये गये परीक्षणों से स्पष्ट होता है कि प्रोटीनों, डी.एन.ए. आदि जैसे अनेक महत्वपूर्ण संघटकों या घटकों को प्रयोगशाला में संश्लेषित किया जा सकता है तथा किसी ‘जीवित शरीर’ जैसी या सदृश किसी चीज़ को संश्लेषित किया जा सकता है, यद्यपि किसी परख-नली में जीवन के समरूप कोई चीज़ उत्पन्न नहीं की जा सकती है । नोबेल प्राइज विजेता रसायनज्ञ ज़ेन्ट ग्योर्जी (Szent Gyorgi) ने स्पष्ट अभिहित किया है : “जीवन के रहस्य की मेरी खोज में मुझे एटम और इलेक्ट्रॉन मिले, तथापि उनमें कदापि जीवन नहीं है । कहीं इस दिशा में जीवन मेरी अंगुलियों से निकल गया है । इसलिए अपनी वृद्धावस्था में मैं अपने कदमों को फिर से खोज रहा हूँ ।” इससे स्पष्टतः प्रकट होता है शरीर भौतिक संघटकों से निर्मित होता है । किन्तु वैज्ञानिक जो कुछ भी संश्लेषित कर सकते हैं उसमें चेतना का अभाव है जो किसी जीवित प्राणी का आवश्यक लक्षण है । प्रोटीनॉएडों या डी.एन.ए. में सोचने, अनुभव करने या संवेगों तथा मनोभावों को अभिव्यक्त करने की योग्यता नहीं होती ।
ब्र.कु. जगदीश मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि अतः संक्षेप में यही कहा जा सकता है- पदार्थ दो प्रकार का होता है 1. मृत पदार्थ (अजीव) तथा 2. जीवित पदार्थ (जीव) । जब पदार्थ किसी रासायनिक या जैव रचना होती है तब वह उपापचय का कार्य करता है, बढ़ सकता है तथा बहुगुणित हो सकता है । एवं वह पदार्थ चेतना के लिए अभिव्यक्त होने या कार्य करने का एक उपयुक्त माध्यम बन जाता है । उक्त पदार्थ की क्रियाशील मानव-कोशिका जीवद्रव्य (Protoplasm), केन्द्रक (Nucleus), कोशिका सार (Cytoplasm), गुणसूत्र (Chromosomes), डी.एन.ए. आदि सभी तत्त्वों के साथ-साथ ‘जीवित कोशिका’ (Living Cell) से समन्वित होती है । यद्यपि स्वयं उस पदार्थ अथवा कोशिका में चेतना का गुण नहीं होता है तथापि चेतना के प्रभाव के अन्तर्गत आने से प्रतीत होता है कि उसमें चेतना का गुण है । क्योंकि वस्तुतः चेतना का स्रोत जिसे ‘आत्मा’ कहा जाता है, पूर्णतः एक भिन्न अभौतिक व अपदार्थिक सत्ता है एवं उस अभौतिक सत्ता ‘आत्मा’ के संपर्क में रहने से वह पदार्थ (जीवित शरीर) चैतन्यमय आभासित होता है ।
इस प्रकाश में चिन्तन करने पर ‘जीवन’ भौतिक अस्तित्व की उस अवस्था को दिया गया नाम है जब किसी भौतिक तन्त्र में आत्मा होती है और उसकी चेतना कार्यशील रहती है, भले ही वह निम्न मात्रा में क्रियाशील हो । अन्य शब्दों में, क्रियाशील शरीर की अवस्था या अवस्थाओं को ‘जीवन’ विशेषतः तब कहा जाता है जब उसमें कोई आत्मा निवास करती है, जबकि आत्मा एक अभौतिक सत्ता है और स्थूल शरीर को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व हो सकता है या अस्तित्व की अवस्था या अवस्थायें हो सकती हैं ।
‘चेतना’ आत्मा के आवश्यक विशेषणों में से एक विशेषण है जिससे आत्मा के अस्तित्व की सूचना निर्विवाद रूप से प्राप्त होती है । चेतना अभिव्यक्त हो सकती है या सुप्त हो सकती है । इस अर्थ में यद्यपि जीवन तथा चेतना किसी भौतिक तन्त्र में घनिष्ठता से सम्बद्ध हो सकते हैं तथापि उनके दो भिन्न अर्थ हैं । कोई शरीर कुछ समय के लिए, चाहे वह कितना छोटा हो जीवित शरीर में तब भी बना रह सकता है जब आत्मा ने उसे छोड दिया हो और वह वातावरण में विचरण कर रही हो । इस अवस्था में शरीर में चेतना नहीं होगी, फिर भी उसमें तीन स्वीकृत लक्षण हो सकते हैं । तथापि उसे पुनर्जीवित करने की किसी प्रक्रिया के जरिए सामान्य अवस्था में लाया जा सकता है और आत्मा भी पुनः लौट सकती है या उस माध्यम के जरिए स्वयं को अभिव्यक्त कर सकती है । दूसरे शब्दों में, आत्मा अपनी चेतना तथा अपने अन्य गुणों के साथ किसी भौतिक शरीर के बिना अस्तित्व में रह सकती है एवं कोई भौतिक शरीर कुछ समय के लिए किसी जीवित शरीर के बिना ही जीवित शरीर बना रह सकता है । यह समय इस बात पर निर्भर होता है कितनी देर तक कोई जीव (Organism) अपनी तीन स्वीकृत विशेषताओं या तीन क्रियाओं को कायम रख सकता है ।
पुनश्च ब्रह्माकुमार जगदीश अभिधान करते हैं कि इस सत्य को न जानने के कारण मनुष्य स्वयं को एक जीवित शरीर समझता है । वह इस सत्य को सहजता से भूल जाता है या नजरअंदाज कर देता है कि वह एक ‘आत्मा’ है जिसके पास सोचने, अनुभव करने, स्मरण करने तथा परखने की योग्यतायें हैं । किन्तु वह इन योग्यताओं को मन से सम्बद्ध करता है या उनका श्रेय मन को देता है, जिसके बारे में उनके पास कोई स्पष्ट विचार नहीं है या जिसे अज्ञानता के कारण एक सूक्ष्म भौतिक सत्ता या मस्तिष्क का एक कार्य मानता है । वास्तवतः ‘चेतना’ या ‘मन’ जिसकी अभिव्यक्ति, विचार, भावना, निर्णय आदि के रूप में होती हैं, शाश्वत है तथा शरीर से भिन्न है और मन या आत्मा अभौतिक सत्ता है जो मस्तिष्क में उपस्थित रहकर कार्य संपादित करती है ।
शरीर और चेतना : दो भिन्न वास्तविकतायें
ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार शरीर पदार्थ के तत्त्वों से रचित है । ‘चेतना’ न तो इन तत्त्वों का गुण है और न ही उनमें से किन्हीं भी तत्त्वों के संयोजन का गुण है । ‘चेतना’ अभौतिक या आध्यात्मिक सत्ता आत्मा की अन्तर्निहित एक शक्ति है । आधुनिक विज्ञान के प्रकाश में शरीर-क्रिया विज्ञान से यह ज्ञात होता है कि शरीर कोशिकाओं से निर्मित होते हैं एवं कोशिकायें अणुओं से निर्मित होती हैं । पुनश्च शरीर की कोशिकायें निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं और प्रायः सात वर्षों की अवधि में पुरानी कोशिकाओं में इतना अधिक परिवर्तन होता है कि उस अवधि के अन्त तक नई कोशिकाओं द्वारा उन कोशिकाओं को ‘प्रतिस्थापित’ कर दिया जाता है । अतः शरीर में वह एक भी कोशिका नहीं होती जो सात वर्ष पहले थी । इस प्रकार शरीर वही नहीं रहता जैसा कि वह सात, चौदह या इक्कीस वर्ष पहले था । बाल्यकाल में किया गया किसी व्यक्ति का अनुभव अथवा अन्य सभी घटनाओं के स्मरण से (जो हर सात वर्ष के पूर्व का पश्चात् में होता रहता है) स्पष्टतः सूचित होता है- सचेतन सत्ता ‘चेतना’ तथा ‘शरीर’ दो भिन्न सत्तायें हैं । यद्यपि शरीर आयु के साथ परिवर्तित होता है तथापि आत्मा अपनी अनन्यता व निरन्तरता कायम रखती है । इसके विपरीत किसी व्यक्ति को मात्र एक शरीर (मस्तिष्क सहित) समझा जाय तो उसकी निरन्तर अनन्यता तथा निरन्तर व चेतना के तथ्य की व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि उसके शरीर तथा मस्तिष्क की कोशिकाओं में सात वर्षों के पश्चात् बहुत अधिक परिवर्तन हो चुका होता है ।
इसके अतिरिक्त, ‘शरीर’ तथा ‘चेतना’ दोनों की पूर्णतः भिन्न-भिन्न वास्तविकता के स्वरूपों को प्रकटित करने के लिए सामान्य ज्ञान (जो स्पष्ट रूप से दैनन्दिन जीवन में अनुभूत होता रहता है) का आधार लेकर ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उल्लिखित करते हैं - शरीर थक जाता है किन्तु चेतना थकती नहीं है, तथापि चेतना केवल ऊब सकती है । शरीर की भौतिक ऊर्जा निःशेष हो सकती है, किन्तु चेतना मानसिक, तात्त्विक या आध्यात्मिक ऊर्जा की अनिःशेषता का अनुभव कर सकती है और वस्तुतः वह ऊर्जा वर्षों के साथ बढ़ती है । शरीर वर्षों के बीतने से बूढ़ा हो जाता है, किन्तु मन केवल अधिक प्रज्ञावान तथा अधिक अनुभवी हो जाता है । हृदय जो शरीर का एक भाग है, आयु के बढ़ने के साथ कमजोर हो सकता है, किन्तु चेतना या मन की घृणा करने की या प्रेम करने की शक्ति बढ़ सकती है । इस प्रकार ये दो भिन्न सत्तायें हैं- शरीर, कोशिकीय तथा आणविक होने के कारण भौतिक है; किन्तु मन, चेतना या आत्मा- मानसिक, आध्यात्मिक, अतिभौतिक, आधिभौतिक, अभौतिक अथवा पराभौतिक सत्ता है ।
चेतना : मस्तिष्क से पृथक् सत्ता
ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र अपनी पुस्तक के “शरीर से बाहर का अनुभव” अनुभाग में दो अलौकिक विषयों (प्रजापिता ब्रह्माकुमारी संस्था के संस्थापक प्रजापिता ब्रह्माबाबा और सर ऑकलैन्ड गेड्डे के जीवन से सम्बन्धित वृत्तान्त) का दृष्टान्त प्रदर्शित कर निष्कर्ष रूप में अतीन्द्रिय चेतना तथा मस्तिष्क सम्बन्धी मन्तव्य प्रकटित करते हैं-
‘चेतना’ आत्मा का ही अन्तर्निहित गुण है । आत्मा चेतना के माध्यम से ही कार्य करती है, किन्तु मस्तिष्क उस चेतना को परिसीमित कर देता है । मस्तिष्क उसे केवल त्रि-आयामीय वस्तुओं का अनुभव करने योग्य बना देता है, परन्तु शरीर के बहिर्भूत आत्मा बहु-आयामीय अनुभव अथवा अतीन्द्रिय दर्शन कर सकती है ।
‘चेतना’ मस्तिष्क से पूर्णतः पृथक् है तथा अभिज्ञता की उच्चतर अवस्थाओं के साथ अशरीरी रूप में रह सकती है । वह अभिव्यक्त हो सकती है अथवा सुप्त भी रह सकती है । ‘चेतना’ कोई अनुघटन नहीं है, न ही कोई जैव-रासायनिक उत्पाद है और न ही मस्तिष्क के कार्य का परिणाम है । मनुष्य न केवल शरीर के बहिर्भूत सोच सकता है और अनुभव कर सकता है बल्कि देख भी सकता है और सुन भी सकता है । अतः विचार, प्रत्यक्षण, भावना, संकल्प, स्मृति आदि अमस्तिष्कीय कार्य हैं । सोचने तथा इच्छा करने का कार्य मस्तिष्क द्वारा नहीं किया जाता । संकल्प या इच्छा उस सत्ता से सम्बन्धित हैं जो शरीर के बाहर अस्तित्वमान रह सकती है तथा अन्तर्विवेकशील है । आत्मा अपने साथ अपने विचारों, अपनी भवनाओं तथा अपने कार्यों के संस्कार ले जाती है जो कि सुषुप्त हो सकते हैं या अभिव्यक्त हो सकते हैं ।
निष्कर्ष
इस प्रकार एक नवीन दृष्टिकोण के साथ ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र ने अतीन्द्रिय आध्यात्मिक चेतना तथा जड़ देह के अन्तर का विवेचन स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर मनुष्य को अपने लक्ष्य की ओर प्रगतिशील होने की प्रेरणा प्रदान की है । यद्यपि मनुष्य अपने अनुभवात्मक ज्ञान का प्रयोग समयानुसार करता रहता है परन्तु ‘स्वयं’ का सत्य स्वरूप क्या है?- इस सन्दर्भ में अपने को सामान्य मानव-मात्र समझकर वह कार्य करने में अग्रसर होता रहता है जिससे उसकी स्थिति सदाकाल के लिए एकरस व सन्तुष्टता की नहीं रहती है । वास्तव में मनुष्य स्वयं एक अन्तर्विवेकशील चैतन्य सत्ता है जो कि देह का उपयोग कर अपने कार्यों का निष्पादन करता है । इस यथार्थ ज्ञान के अवबोध से ही उसका मानसिक दृष्टिकोण पूर्णतया परिवर्तित होकर एक श्रेष्ठ, मूल्यनिष्ठ समाज या संसार के नवनिर्माण में वह एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकता है । मानव ईश्वर की अनुपम रचना है, किन्तु अपनी वास्तविक पहचान व अनुभव होने से ही उस परमेश्वर के समस्त गुण अथवा शक्तियाँ उसके द्वारा अभिव्यक्त हो सकते हैं ।
सन्दर्भग्रन्थसूची
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