Saturday, December 10, 2011

आध्यात्मिक ऊर्जा-स्रोत ईश्वर (परमात्मा):
ब्रह्माकुमारीज़ दृष्टिकोण


उपक्रम


जड़ भौतिक ऊर्जा एवं चैतन्य पराभौतिक ऊर्जा के परस्पर समन्वयन से इस जड़-चेतन-तत्त्वमय दृश्यमान जगत् की अवस्थिति परिलक्षित है । अतः उभय भौतिक तथा चैतन्य शक्ति के सम्यक् अधिगम एवं क्रियान्वयन से मानव-जीवन व वैश्विक स्थिति एक सुव्यवथित, महत् आयाम को प्राप्त कर सकती है । इसी दिशा में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के मुख्य प्रवक्ता ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा ने आध्यात्मिक अथवा ईश्वरीय ज्ञान के आधार से प्रसंगानुकूल विषय-वस्तु को वैज्ञानिक तथा दार्शनिक दृष्टिकोण से अनुशीलन कर एक अभिनव शैली से सारभूत तथ्य को प्रतिपादन करने का दृढ़ प्रयास किया है । ब्रह्माकुमारीज़ संस्थान में विज्ञान, दर्शन एवं अध्यात्म दिशात्रय द्वारा युक्तियुक्त समन्वयन कर मानवता को सर्वोच्च स्तर पर पहुँचाना, मुख्य उद्देश्य है । अतः इस आध्यात्मिक संस्थान द्वारा प्रदत्त दर्शन के तत्त्व-मीमांसीय क्षेत्र में ईश्वर (परमात्मा), आत्मा एवं द्रव्य (जगत्) विषयक सत्तात्रय का वैज्ञानिक व तर्कसम्मत रीति से विवेचन प्रस्तुत किया गया है ।

“परमात्मा” के अस्तित्व व स्वरूप की सत्यता और निश्चितता जितना विवादास्पद और रहस्यमय विषय बना हुआ है उतना कदाचित् ही अन्य कोई विषय मनुष्य-मात्र के समक्ष होगा । इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रत्येक दार्शनिक को परमात्मा के विषय में अपनी कुछ-न-कुछ सम्मति देना सदा ही आवश्यक रहा है, अन्यथा इसके बिना उसका दर्शन-विवेचन ही अपूर्ण रह जाता । सामान्य जन में जहाँ बहुसंख्यक लोग उस परमात्मा की प्रभुता और अस्तित्व में आस्था रखते हैं, वहाँ अल्पसंख्यक वर्ग भी है जिसे उसके अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए कोई विवेकसंगत आधार प्राप्त नहीं होता और अंधविश्वास की रीति में वह उसे स्वीकार करना नहीं चाहता है, जिन्हें नास्तिक कहा जाता है । अतः “परमात्मा” अथवा “ईश्वर” का सही विवेचन करना अत्यन्त उपयोगी है क्योंकि मनुष्य व सृष्टि के लिए उसकी कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है, उसके ज्ञान के बिना मनुष्य का जीवन निरर्थक हो जाता है ।

अन्य पक्ष में, विज्ञान सृष्टि में विद्यमान अतीन्द्रिय रहस्यमयी सत्ताओं का उद्घाटन पूर्णतया नहीं कर सकता क्योंकि मनुष्य अपने अस्तित्व में बंधायमान है । वह अपनी इन्द्रियों, उपकरणों, अपनी मस्तिष्क-सामग्री, अपनी प्रवणताओं, अपने व्यक्तित्व-वैशिष्ट्यों तथा प्रच्छन्न विगत स्मृतियों की परिसीमाओं से आबद्ध है । इसलिए एक उच्चतर तथा अनुभवातीत सत्ता की आवश्यकता है जो समस्त परिसीमाओं से परे हो ताकि मनुष्य के रहस्य का विस्फोट कर सके एवं वह सत्ता है स्वयं “ईश्वर” या “परमात्मा” । ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन उस परमशक्ति ईश्वर या परमात्मा के बारे में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए एक वौश्विक आधार प्रदान करने का प्रयत्न करता है, जिससे मानव उस सर्वोच्च सत्ता के साथ सम्बन्ध स्थापित कर अपनी आध्यात्मिक उन्नति साधित करने के साथ-साथ विश्व के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान प्रस्तुत कर सकता है । प्रस्तुत लेख में ईश्वर के यथार्थ, वास्तविक या सत्य स्वरूप सम्बन्धी विषय में ब्रह्माकुमारी दर्शन का मन्तव्य प्रकट किया जा रहा है ।

एक परम सत्य सत्ता, न कि कल्पना

परमात्मा के विषय में अज्ञान


ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र संसार में प्रचलित मनुष्यों के मतों को उपस्थापित करते हुए कहते हैं कि ईश्वर के सन्दर्भ में विवाद का विषय केवल उसका ‘नाम’ ही है । उस नाम से किस व्यक्ति या वस्तु का प्रतिबोधन होता है? उसका रूप, गुण, कर्तव्य और धाम क्या है? इन सबके विषय में मनुष्य पूर्णतया अज्ञान है, जैसे ‘छाया’ के पीछे विवाद चल रहा हो । भिन्न-भिन्न वर्ग उसका स्वरूप अपनी-अपनी कल्पना अथवा रुचि के अनुसार रचकर उसे “परमात्मा” की संज्ञा दे देते हैं । चूँकि यह स्वरूप रुचि व कल्पना पर आधारित है इसलिए एक कल्पित वस्तु-तुल्य हो गई है । दूसरे, चूँकि भिन्न-भिन्न वर्ग कल्पनायें करते आये हैं, अतः परमात्मा भी एक न होकर अनेक हो गये । नास्तिक मनुष्य इन कल्पनाओं में जाना नहीं चाहता और इसका स्पष्ट निषेध कर लेता है । मौलिक बात यही है कि परमात्मा को मानने वाला मनुष्य भी उसको नहीं जानता है । उसके सत्य परिचय से वह अनभिज्ञ है तथा स्वीकार कर कहता है ‘नेति-नेति’ । ईश्वर को बुद्धि के जानने से परे की वस्तु वह समझता है । परन्तु फिर यह भी उसने किस तरह से जाना कि ‘वह ईश्वर है?’ क्योंकि बुद्धि से सूक्ष्म अन्य कोई यन्त्र मनुष्य के पास नहीं है । ‘दिव्य-बुद्धि’ भी बुद्धि के अन्तर्गत ही आती है । इन परस्पर विपरीत बातों को कह मनुष्य ने जहाँ एक ओर अपनी अज्ञानता का परिचय दिया, वहीं दूसरी ओर वह सब त्याग-तपस्या, भक्ति-पूजा करते हुए भी परमात्मा के सम्बन्ध और संपर्क के वास्तविक लाभ से वंचित रहा है ।

पुनश्च समग्र जगत् में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न मतों का संग्रहण कर उल्लिखित करते हैं- ईश्वर जैसी किसी बाहरी शक्ति पर मनुष्य को आधारित न होना रूपी बौद्ध मत; समस्त ब्रह्माण्ड व सृष्टि में एक ही मूल तत्त्व ब्रह्म का अस्तित्व तथा अन्य तत्त्वों का मिथ्या या आभासिक ज्ञान रूपी अद्वैत मत (ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या); मान्यता रूप में ईश्वर या परमात्मा द्वारा सात दिनों के अन्दर समस्त जगत्, प्राणी, मनुष्य, सूर्य-चन्द्रादि का निर्माण सम्बन्धी ईसाई एवं मुस्लिम मत; पुनश्च वेदान्त दर्शन की जन्मभूमि भारतवर्ष में राम-कृष्णादि, मच्छ-कच्छ-वाराह-नागादि, सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी-नदी-वृक्षादि के रूप में अनेक भक्ति-मार्गीय ईश्वर-सम्बन्धी मतों के कारण वर्तमान समय में परमात्मा के अस्तित्व के विषय में विवाद के मुख्य तीन स्वरूप हैं-

1. यदि परमात्मा है तो क्या वह निजी व्यक्तित्व वाला है या कोई सार्वभौमिक शक्ति है?
2. यदि परमात्मा का अपना निश्चित व्यक्तित्व है तो जो भिन्न-भिन्न रूपों में उसकी पूजा होती रहती है उसे क्या संज्ञा दी जाये?
3. परमात्मा का वास्तविक कर्तव्य क्या है? क्या उसको वास्तविक रूप में जानने के पश्चात् उससे वास्तविक सम्बन्ध जोड़ने के बाद मनुष्य पुरुषार्थहीन हो सकता है या उसका पुरुषार्थ अपने कल्याण और लोक-कल्याण अर्थ और ही तीव्र हो जाता है?

अद्वैतवाद सम्बन्धी सर्वव्यापक ‘ब्रह्म’ मत का वैज्ञानिक आधार से खण्डन करते हुए ब्र.कु. जगदीश कहते हैं- शक्ति और पदार्थ दोनों एक-दूसरे में बदले जा सकते हैं । अतः यह कहना कठिन है कि सृष्टि के मूल में एक पदार्थ या शक्ति थी । केवल एक शक्ति से अनेक पदार्थों का निर्माण नहीं हो सकता क्योंकि यह बात निर्विवाद है भिन्न-भिन्न पदार्थों से भिन्न-भिन्न प्रकार की ‘शक्ति’ प्राप्त होती है । आज तक संसार में एक भी दृष्टान्त नहीं है कि बिना किसी दूसरी वस्तु की सहायता के किसी एक वस्तु से अनेक वस्तुयें निर्मित हुई हों । अतः यह मानना असंगत है कि मूल में केवल एक ‘ब्रह्म’ रूप शक्ति है । अध्यात्मवादी राजयोगी जगदीश त्रुटि की ओर इंगित करते हुए कथन करते हैं कि कदाचित् यह मूल ‘शक्ति’ शब्द के कारण ही त्रुटि हुई है । सारे विश्व के कण-कण में ‘शक्ति’ व्याप्त है, किन्तु मूल रूप में भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्ति है- यह बात भुला दी गई । इसी प्रकार की भूल ‘आत्मा’ शब्द के साथ हुई है । यह सत्य है कि सर्व प्राणियों में आत्मा है, किन्तु यह सत्य नहीं है कि सर्व आत्माओं के गुण एवं कर्तव्य मूल रूप में एक जैसे हैं । मूल शक्ति के विषय में यह बात इसलिए स्वीकरणीय है कि कम-से-कम दो प्रकार की अवश्य ही होगी, अन्यथा दो के बिना अनेकता का दृष्टिगोचर होना असंभव है ।
अतः मूल में दो तत्त्व प्रत्यक्ष होते हैं । 1. जड़ प्रकृति अपने भिन्न रूपों में, 2. चैतन्य । चैतन्य के भी दो रूप दिखाई देते हैं- 1. जीवन शक्ति एवं 2. ज्ञान शक्ति ।

जीवन शक्ति एवं ज्ञान शक्ति

यदि भिन्न-भिन्न रूपों की जड़ प्रकृति में प्रवाहित होने वाली जीवन शक्ति एक ही है जो ही सर्व वस्तुओं को गति प्रदान करती है जिससे प्रत्येक वस्तु अपनी शक्ति अनुसार गति अथवा चेतनता ग्रहण करती है एवं यह जीवन शक्ति ही वह सर्वव्यापक ‘ब्रह्म’ है जो सर्व वस्तुओं को गति प्रदान करते हुए भी स्वयं निर्लिप्त है । तब प्रश्न होगा कि क्या परमात्मा केवल चैतन्य है और क्या वह केवल चेतनता ही प्रदान करता है? क्या मनुष्य चेतनता पाने के लिए परमात्मा को याद करते हैं? परमात्मा का ऐसा स्वरूप स्वीकार करना विवेकसंगत नहीं है । ईश्वर या परमात्मा स्वयं निःसन्देह चैतन्य है परन्तु उसे सारी सृष्टि की चेतनता का सामूहिक स्वरूप मानने का कोई आधार नहीं है ।

पुनश्च ज्ञान-शक्ति के सन्दर्भ में विवेचन प्रस्तुत करने के लिये ब्र.कु. जगदीश मन्तव्य देते हैं कि प्रत्येक जीव-प्राणी का ज्ञान-भण्डार भिन्न-भिन्न है । इस भिन्नता का एकमात्र कारण यही है कि प्रत्येक जीव प्राणी अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार सामूहिक ज्ञान भण्डार (ईश्वर) से अपने लिए ज्ञान ग्रहण करता है । जो जितना ग्रहण कर पाता है वह उतना उच्च श्रेणी का जीव प्राणी माना जाता है और जो जितना कम वह उतना निम्न श्रेणी का है । इस अवस्था में सामूहिक ज्ञान भण्डार वैसे ही निर्लिप है जैसे सूर्य का प्रकाश । सूर्य सभी को समान रूप में प्रकाश प्रदान करता है परन्तु प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति उस प्रकाश को भिन्न-भिन्न मात्रा में अपनी शक्ति-सुविधा-परिस्थिति के अनुसार ग्रहण करता है । परन्तु यदि सृष्टि का कार्य केवल इस प्रकार ही गतिशील होता कि हर वस्तु और हर प्राणी जड़ प्रकृति से, सामूहिक जीवन शक्ति से व सामूहिक ज्ञान शक्ति से पूर्णतया स्वतन्त्र रूप से अपने व्यक्तित्व तक सीमित कार्य करता रहता हो तो कदाचित् परब्रह्म परमेश्वर को ‘सामूहिक जीवन शक्ति’ व ‘सामूहिक ज्ञान शक्ति’ स्वीकार किया जाता । परन्तु ऐसे परमात्मा की विशेष अनुकम्पा प्राप्त करने के पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं है । कदाचित् इसी कारण बौद्ध मत और संन्यास मत ‘व्यक्तिवादी अध्यात्म’ का प्रतिपादन करता है ।

अध्यात्मवादी ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र व्यावहारिक ज्ञान को संयोजित करते हुए उल्लेख करते हैं कि प्रत्येक प्राणी के पास जो भी ज्ञान शक्ति तत्त्व अर्जित है या जो भी और ज्ञान वह अपने निजी प्रामाणिक सामूहिक ज्ञान कोष से लेता है, उसके अतिरिक्त मनुष्य प्राणियों का आपस में भी ज्ञान का आदान-प्रदान होता रहता है और उससे मनुष्य के व्यक्तिगत संस्कारों में परिवर्तन होते रहते हैं । हम आपस में एक-दूसरे से भी बहुत कुछ सीखते और समझते हैं जिसका प्रभाव हमारे विचार और व्यवहार पर पड़ता है । विशेष रूप से अशक्त एवं मन्द-बुद्धि प्राणी को बुद्धिमान प्राणी से बुद्धि प्राप्त होती है । जब बुद्धि का आदान-प्रदान इस प्रकार मानवों के बीच हो सकता है और होता है तो इस बात को समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि यह आदान-प्रदान मानव और अति मानव के मध्य भी हो सकता है जिस अति-मानव को “परमात्मा” की संज्ञा दी जाती है । परमात्मा का यही वास्तविक स्वरूप है जिस स्वरूप में मनुष्य ‘परमात्मा’ को एक निजी व्यक्तित्व रूप में समझता है । इसलिए साधना पर ध्यान आकर्षित करने वाला योगदर्शन भी ईश्वर को पुरुषविशेष के रूप में तथा न्याय-वैशेषिक दर्शन सर्वज्ञत्व-युक्त एक भिन्न सत्ता के रूप में स्वीकार करते हैं क्योंकि ईश्वर की भक्ति कर मनुष्य अपनी कामनाओं की पूर्ति करता है जो एक सर्वविदित व्यावहारिकता है ।

अतः पूर्वोक्त स्वरूप में विद्यमान ‘ज्ञानकोष-बिन्दु’ ईश्वर की सत्ता को सार्वभौमिक रीति से स्थापित या सिद्ध करने के लिए ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन पाँच मुख्य बिन्दुओं जो कसौटी का कार्य संपन्न करते हैं, पर विशेष बल प्रदान कर विवेचन प्रस्तुत करता है-

1. सर्वधर्ममान्य (हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आदि समस्त धर्मों द्वारा स्वीकृत)
2. सर्वोच्च शक्ति (सर्व का परम पिता-शिक्षक-सद्गुरु, मुक्ति-जीवन्मुक्ति दाता)
3. सर्वोपरि (जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, देह व देह के सम्बन्धों आदि चक्रों से परे)
4. सर्वज्ञ (सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त का ज्ञाता, त्रिकालदर्शी, त्रिलोकीनाथ, त्रिनेत्री, त्रिमूर्त्ति)
5. सर्व गुणों में अनन्त (ज्ञान-दिव्यगुण-शक्तियों का अनन्त अविनाशी स्रोत, सर्वशक्तिमान)

इन पांचों बातों से संपुष्ट ईश्वर-सम्बन्धी मत ही सार्वभौमिक रीति से ग्रहणीय हो सकता है, अन्यथा नहीं । निष्कर्षतया उस परमसत्य के बारे में यह तथ्य उद्भूत होता है कि वह एक निराकार ज्योतिर्मय चैतन्य सर्वोच्च शक्ति है (जिसे परमात्मा, भगवान, अल्लाह, खुदा, नूर, जेहोवा, GOD, अखण्ड ज्योति, सद्गुरु आदि नामों से अभिहित किया है) । भारतवर्ष में उस परमशक्ति की अण्डाकृति शिवलिंग के रूप में पूजा-आराधना होती है तथा भारतवर्ष से बाहर निराकार (वेदेही) ज्योति पुंज के रूप में अथवा एक अण्डाकृति पत्थर के रूप में उसका ध्यान किया जाता है । उपर्युक्त समस्त तथ्यों को सम्मिलित रूप में प्रस्तुत करते हुए ब्रह्माकुमारी दर्शन का स्वमत निम्नोक्त प्रदर्शित है-

i. स्वरूप, नाम, गुण एवं अवस्थान

आध्यात्मिक ऊर्जा का परम स्रोत “ईश्वर” या “परमात्मा”, चैतन्य शक्ति आत्मा (ज्योतिर्मय बिन्दुस्वरूप) के समान ही प्रकाश का एक अनन्त सूक्ष्म बिन्दु है, किन्तु वह अन्तर्विवेकशील सर्वोच्च सत्ता है । ब्रह्माकुमारी दर्शन में परमात्मा के लिए ‘शिव’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जो समस्त आत्माओं का अविनाशी पिता है । ‘शिव’ का अर्थ है बिन्दु (रूप), बीज (मात्रा) एवं कल्याणकारी (वृत्ति) । अतः ईश्वर को ‘सदाशिव’ भी कहा जाता है अर्थात् शाश्वत कल्याणकारी सत्ता । उसमें ज्ञान, गुण व शक्ति अनन्त रूप में विद्यमान हैं । अभौतिक प्रकाशस्वरूप परमात्मा सप्त गुणों ज्ञान-पवित्रता-सुख-शान्ति-प्रेम-आनन्द-शक्ति से परिपूर्ण है जो सूर्य के सप्तरंगी प्रकाश-सम हैं, किन्तु केवल मानस-दर्शनीय है । सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप ईश्वर एक एवं अद्वितीय है । वह परम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ या सर्वोत्कृष्ट आत्मा है जो अपने अपार प्रज्ञान से संपूर्ण सत्य को जानता है । वह सर्वशक्तिमान तथा सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान भी है । परमात्मा अशरीरी (न स्थूल शरीर और न ही सूक्ष्म शरीर), शाश्वत व अनश्वर है । ईश्वर सदैव स्व के प्रति जागरूक रहता है अर्थात् सर्वदा चैतन्यमय स्थिति में विद्यमान रहता है ।

भौतिक जगत् से ऊर्ध्व प्रकाशमय निराकारी क्षेत्र में उसका अवस्थान है जिसे ‘ब्रह्मलोक’ अथवा ‘परमधाम’ कहा जाता है । इस परमधाम या मुक्तिधाम के बारे में प्रायतः कहीं भी शास्त्रों या ग्रन्थों में समुचित प्रकाश नहीं डाला गया है । किन्तु अध्यात्मनिष्ठ ब्रह्माकुमारीज की अनुभवसिद्ध दृढ़ मान्यता है इस धाम या जगत् का अनेक बार दिव्य दर्शन किया गया है और किया जा रहा है । अतः इस दर्शन के अनुसार यह जगत् या क्षेत्र पदार्थों एवं विचारों की सीमा से परे एक समय रहित, स्थान रहित तथा माप रहित स्थल है जहाँ सर्वत्र शान्ति व्याप्त है । यह जगत् पंचतत्त्वों से भी पृथक् छठा “ब्रह्म” नामक तत्त्व से निर्मित है । इसलिए परमधाम को “ब्रह्माण्ड”, “ब्रह्मलोक” आदि नामों से भी अभिहित किया जाता है । सर्वोच्च तथा सर्वाधिक पवित्र क्षेत्र ब्रह्म तत्त्व में निवास कर परम-पवित्र परमात्मा सूर्य के समान अपनी कल्याणकारी ज्ञान-गुण-शक्तिमयी किरणें पृथिवीवासियों के ऊपर निरन्तर विकिरण करता रहता है ।

ii. एकमात्र अपरिवर्तनशील सत्ता

संसार के समस्त पदार्थ (प्रकृति-द्रव्य) समय व गति के नियम के अनुसार परिवर्तनशील होते रहते हैं । पुनश्च समस्त शरीरधारी आत्मायें भी जन्म-मरण के चक्र में आने से उनमें गुण, शक्तियों का ह्रास अथवा परिवर्तन होता जाता है । किन्तु ‘ईश्वर’ ही एकमात्र ऐसी सत्ता है जिसमें कदापि कोई परिवर्तन (न ज्ञान में, न गुणों में और न ही शक्तियों में) संघटित नहीं होता है । वह कभी भी पतनोन्मुख नहीं होता और न ही उसमें किसी प्रकार का कोई उत्थान होता है । अतः वह अपने मूल स्वभाव में सदा शाश्वत रहता है । इसलिए वह सर्वदा पवित्र व सत्यस्वरूप ही है ।

निराकार ज्योतिर्बिन्दु-स्वरूप परमात्मा, आत्माओं की तरह शरीर धारण नहीं करता अर्थात् जन्म नहीं लेता बल्कि संसार के एक विशेष समय (कल्याणकारी पुरुषोत्तम संगम युग जो कलियुग की अन्तिमावस्था तथा सत्ययुग की आदि अवस्था है) में उसका दिव्य अवतरण (दिव्य जन्म) होता है । अतः वह सदा कर्मबंधन व कर्मफल से विमुक्त है । अतः ईश्वर, एक आत्मा होते हुए भी कदापि पदार्थ के बंधन में नहीं आने के कारण एवं सर्वदा जन्म-मृत्यु के चक्र से अतीत होने के कारण, उसको एक भिन्न सत्ता के रूप में परिगणित किया जाता है ।

iii. त्रिकालदर्शी, द्रव्यमानरहित एवं अनन्त-ऊर्जासंपन्न

ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार सर्वशक्तिमान परमात्मा, मनुष्य-सृष्टि-रूपी वृक्ष का अविनाशी बीज-स्वरूप है जिसमें समग्र सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त का ज्ञान सन्निहित है, जिसका उल्लेख गीता में भी किया गया है ।

ब्र.कु. जगदीश आधुनिक विज्ञान के प्रकाश में इस तथ्य को प्रकट करते हैं कि कैसे ईश्वर सर्वज्ञ अथवा त्रिकालदर्शी है? विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने प्रतिपादित किया है यदि कोई प्रकाश की गति से भी अधिक तीव्र जा सकता है तो वह काल के तीनों पहलुओं (भूत, वर्तमान और भविष्य) को जान सकता है । किन्तु उसका अधिभौतिक दर्पण अर्थात् मन स्वच्छ या उसकी प्रज्ञा दैवीकृत होनी चाहिए तथा उसको अधि-भौतिक कर्षण अर्थात् अन्यों के प्रति आसक्ति से पूर्णतः मुक्त होना चाहिए । अतः ब्रह्माकुमारीज यह बात स्पष्ट करता है कि ईश्वर, जिसमें लेश मात्र भी मानसिक आसक्तियाँ या अशुद्धतायें नहीं हैं और जो अपनी ‘ईश्वरीय अनन्त गति’ से यात्रा कर सकता है, तीनों कालों को जानता है । अन्तर्विवेकशील दिव्य प्रकाश बिन्दु ईश्वर के चारों ओर एक दिव्य आभामण्डल होता है अर्थात् वह अपने वलयाकार रूप में संसीमित है । आत्माओं की तरह यह परम आत्मा भी द्रव्यमानरहित अनन्त-उर्जासंपन्न अत्यन्त सूक्ष्म चेतन सत्ता है जिसको केवल सूक्ष्म-दृष्टि द्वारा देखा जा सकता है या अनुभव किया जा सकता है ।

iv. भौतिक सृष्टि में दिव्य अवतरण एवं अद्वितीय भूमिका

मनुष्य आत्माओं को परमात्मा का दिया हुआ एक अनुपम उपहार है नकारात्मकता की पहचान करने की शक्ति । जब जगत् की समस्त मनुष्यात्मायें संसार-चक्र में संसरण कर दुःखी, अशान्त तथा पतित हो जाती हैं तब उनके तथा समग्र सृष्टि के कल्याणार्थ वह स्वयं स्वधाम ब्रह्म जगत् से इस स्थूल भौतिक जगत् में एक मानवीय (प्रजापिता ब्रह्मा के) तन में परकाया प्रवेश कर ईश्वरीय सत्य ज्ञान व राजयोग के माध्यम से आत्माओं का दिव्यीकरण कराके सत्त्वप्रधान सुव्यवस्थित दैवी-सृष्टि की पुनर्स्थापना करता है । जिससे आत्मा-रूपी सन्तानों को सुख-शान्ति-समृद्धि का अधिकार प्राप्त हो जाता है । इस कथन का उल्लेख सर्वशास्त्र शिरोमणि गीता में भी किया गया है ।

ईश्वर द्वारा संसार या सृष्टि परिवर्तन रूपी कर्तव्य की बात को स्पष्ट करने के लिए वैज्ञानिक आधार से संपुष्ट करते हुए ब्र.कु. जगदीश मत व्यक्त करते हैं - तापगतिकी के नियमानुसार उपलब्ध ऊर्जा में हानि (एन्ट्रॉपी) के कारण विश्व क्षय की अवस्था की ओर गतिशील होता है । पुनश्च द्रव्य पर मन का सूक्ष्म प्रभाव पड़ने के कारण प्रकृति भी अपनी मूल ऊर्जा से विहीन हो जाती है । अपक्षय की इस अवस्था में अर्थात् जब उभय आध्यात्मिक व भौतिक ऊर्जा में गिरावट आने से अधिकतम एन्ट्रॉपी की अवस्था पहुँच जाती है तब आध्यात्मिक ऊर्जा का उच्चतम बिन्दु स्रोत “परमात्मा” इस भौतिक जगत् में हस्तक्षेप करता है । वह ईश्वरीय ज्ञान तथा राजयोग के माध्यम से आध्यात्मिक एन्ट्रॉपी को उत्क्रमित कर देता है और अन्यपक्षतः परमाणु अस्त्रशस्त्र के विखण्डन, प्राकृतिक आपदाओं आदि के जरिए भौतिक एन्ट्रॉपी उत्क्रमित हो जाती है । फलस्वरूपतः पृथ्वी, जल तथा वायु एवं उनके उत्पादों को अधिकतम ऊर्जा-संकेन्द्रण प्राप्त होता है ता सत्त्वप्रधान स्थिति प्राप्त होती है । जिससे एक पूर्ण व्यवस्थित व सन्तुलित जगत् की स्थापना हो जाती है, जिसमें भौतिक वस्तुओं में अधिकतम ऊर्जा-संकेन्द्रण तथा आत्माओं के पास भी अधिकतम उपलब्ध नैतिक व आध्यात्मिक ऊर्जा रहती है । नैतिक पुनरुत्थान या आध्यात्मिक नवीनीकरण द्वारा ही भौतिक विश्व में परिवर्तन होने से प्रकृति में पुनः ऊर्जा आती है एवं सृष्टिचक्र फिर से प्रारंभ होता है । स्थूल जगत् शाश्वत है, ईश्वर केवल इसका रूपान्तरण या जीर्णोद्धार करता है । अतः इसी अर्थ में ईश्वर नूतन जगत् का रचयिता या विश्व का रचयिता या सृष्टिकर्ता है ।

v. नियम-प्रदाता, न कि नियम-निर्माता

अनेक दार्शनिक तथा शास्त्रीय भौतिकीविद् ईश्वर को जगत् में विद्यमान समस्त प्राकृतिक नियमों का निर्माता सम्बन्धी मत का पोषण कर उसके समर्थन में विभिन्न युक्तियाँ प्रदान करते आये हैं । किन्तु ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र स्पष्टतया उन सभी की समीक्षा कर कथन करते हैं कि भौतिक वस्तुओं या पदार्थों या शक्तियों में स्वयं के गुण अन्तर्निहित होते हैं । पूर्णतया विज्ञानाधारित युक्तियुक्त मत का उल्लेख कर वो वर्णन करते हैं कि संसार में विद्यमान किसी भी वस्तु में निश्चित अन्तर्निहित, स्वाभाविक या तात्त्विक गुण होते हैं । प्रत्येक तत्त्व का अपना स्वयं का स्वभाव होता है । उदाहरणार्थ- हाइड्रोजन में दहनशील होने का गुण या स्वभाव होता है । उसकी परमाणवीय संरचना ऐसी है तथा उसका अन्तर्निहित स्वरूप ऐसा है कि वह जल सकती है । इसलिए वह एक विशिष्ट ढंग से व्यवहार करती है, इसलिए नहीं कि ईश्वर ने उसे ऐसा व्यवहार करने का आदेश दिया है बल्कि अपनी भौतिक संरचना के कारण । हाइड्रोजन गैस के गठन व संरचना के अनुरूप उसका विशिष्ट व्यवहार होता है । उसी प्रकार हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के पारस्परिक संयोग से जल का निर्माण होता है । यह ईश्वर का चमत्कार नहीं है और न ही उसके आदेश से ऐसा होता है । इन गैसों की आणविक शक्ति ऐसी है कि वे इस अनुपात में संयुक्त होती हैं और जब दो गैसें उस अनुपात में संयुक्त होती हैं तब जल के निर्माण के एलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होता जो एक द्रव्य है । द्रव्य के तत्त्वों तथा भौतिक वस्तुओं में स्थित अपने-अपने अन्तर्निहित भौतिक तथा रासायनिक गुणों के कारण यह सब कुछ संघटित होता है । अतः ईश्वर कोई भौतिक नियम निर्माता नहीं है ।

किन्तु अन्य एक विशेष अर्थ में ईश्वर नियम-निर्माता है । जब विश्व में नैतिक मूल्यों का ह्रास और मानवीय व्यवहार में नीति-परायणता की नितान्त हानि होती है तब वह मानव-जाति को नीति-परायणतापूर्ण कर्मों के नियम देता है, जिसके पालन से मनुष्य को तथा दूसरों को शान्ति मिलती है । वह अध्यादेश या आदेश जारी करता है जिससे मानव-जाति जानती है कि यदि मनुष्य नैतिक तथा आध्यामिक नियमों का उल्लंघन करती है तो उन्हें दुःख उठाना पड़ेगा । इस विशेष सन्दर्भ में ईश्वर नियम-प्रदाता है । किन्तु नियमों का पालन करना अथवा न करना, मनुष्य की इच्छा या पसन्द पर निर्भर है । ईश्वर मनुष्य को एक विशिष्ट ढंग से व्यवहार करने के लिए बाध्य नहीं करता, किन्तु जो नियम वह समझाता है कोई भी मनुष्यात्मा दे नहीं सकती । वे नियम मनुष्य के मूल स्वभाव के अनुसार ही होते हैं तथा यह स्वाभाविक है कि यदि मनुष्य उनका पालन नहीं करता तो दुःख प्राप्त करता है । पुनश्च ईश्वर द्वारा दिये गये नियम स्वयं ईश्वर के द्वारा नहीं बनाये जाते, बल्कि वह मनुष्यों को केवल उनकी जानकारी देता है और बताता है कि ये उनका आध्यात्मिक स्वरूप है । त्रिकालदर्शी ईश्वर के सिवाए कोई अन्य व्यक्ति नहीं है जो मनुष्य को इन नियमों का ज्ञान कराये और न कोई अन्य व्यक्ति अपने स्वयः के व्यावहारिक कार्यों से इन नियमों का निदर्शन कर सकता है । ज्ञानमय कल्याणकारी ईश्वर अपने आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा समग्र विश्व की आध्यात्मिक पुनर्रचना करता है ।

उपसंहार

इसी प्रकार सर्वोच्च सत्ता ‘ईश्वर’ अथवा ‘परमात्मा’ के विषय में एक अभिनव शैली में, किन्तु विज्ञानसम्मत तथ्य प्रदान कर समस्त मानव-जगत् को इस सत्य ज्ञान से अवगत कराने का महान प्रयास अभिनव ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन में किया गया है । इस दर्शन के अन्तर्गत विषयों के अवलोकन से यह प्रतीत होता है समग्र धर्म व दार्शनिक शाखाओं की विषयवस्तु का सार तत्त्व इसमें समाहित है, परन्तु यह इस अध्यात्म-दर्शन की विशेषता है कि इसमें किसी भी दार्शनिक शाखा का विषय ग्रहण नहीं किया गया है बल्कि यह दिव्य रहस्योत्घाटन से ज्ञात होता है, जो इसकी मौलिक मान्यता है । किन्तु विषयवस्तु को सुदृढ़ तथा सर्वस्वीकृत कराने के उद्देश्य से ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र तथा अन्य अध्यात्म-विज्ञानी ब्रह्माकुमार व ब्रह्माकुमारियों ने अनेक आध्यात्मिक, दार्शनिक या धार्मिक शास्त्रों के मतों को संयोजित किया है जिससे एक सार्वभौमिक तथ्य का स्पष्ट रीति से अवज्ञान हो सके अथवा निष्कर्ष रूप में एक तथ्य सुस्थापित हो सके । अतः किसी भी तात्त्विक विषय के कथन को दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक दृष्टि का पुट देते हुए उसका यथार्थतया प्रतिपादन करने में ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन अथवा अध्यात्म-विज्ञान एक योग्य सैद्धान्तिक प्रमाण प्रस्तुत करता है ।


संदर्भग्रन्थसूची

1. प्रकृति, पुरुष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण
2. अविनाशी विश्व-नाटक, भाग-2, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान
3. ज्ञान-निधि, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, साहित्य विभाग, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, दिल्ली
4. पातञ्जलयोगदर्शनम्, संपा. सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 2002, पुनर्मुद्रण
5. तर्कसंग्रह, अन्नंभट्ट, हिन्दी व्याख्या, दयानन्द भार्गव, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 2004, पुनर्मुद्रण
6. Mysteries of the Universe, B.K Nityanand Nair, Prajapita Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Mount Abu, 2008.
7. सर्वदर्शनसंग्रह, माधवाचार्य, संपा. उमाशंकर शर्मा ‘ऋषि’, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1964
8. श्रीमद्भगवद्गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2000
9. ईशादि नौ उपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2000
10. भारतीय दर्शन : आलोचना और अनुशीलन, चन्द्रधर शर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 2004, पुनर्मुद्रण
11. मूल्य शिक्षा एवं आध्यात्मिकता, ब्रह्माकुमारीज शैक्षणिक सोसायटी, आबू रोड, राजस्थान, 2006
12. राजयोग शिविर प्रवचनमाला, ब्रह्माकुमारी ऊषा, ब्रह्माकुमारीज ऑडियो विजुअल, शान्तिवन, आबू रोड, राजस्थान

1 comment:

  1. अध्यात्मिक उर्जा सम्राट ईश्वर के बारे इतनी शानदार प्रस्तुति के लिए साधुवाद।
    उस अशब्दी को इससे अधिक क्या शब्द दिया जा सकता है!

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