Saturday, December 10, 2011

शरीर एवं चेतना : एक अनुशीलन
(ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान तथा आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में)

सारांश

शरीर एवं चेतना से सन्दर्भित प्राच्य एवं पाश्चात्य की विभिन्न दार्शनिक चिन्तनधारा परिलक्षित होती आई है । पुनश्च वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इस विषय के ऊपर अनेकविध मन्तव्य प्रकट किये गये हैं । प्रस्तुत लेख में आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान के पुट को संयोजित करते हुए ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन की ओर से एक विशेष अनुशीलन है, जिसमें भौतिक तत्त्व शरीर एवं चैतन्य शक्ति आत्मा के क्रियान्वयन के अन्तर को स्पष्टतया विवेचित किया गया है । मनुष्य केवलमात्र अणुओं से विनिर्मित एक तात्विक शरीर नहीं है, अपितु मूलतः स्वयं में एक आत्म-अभिज्ञ चैतन्य आध्यात्मिक ऊर्जा है जो जीवित शरीर को चलाने में पूर्णतया सक्षम है । अभौतिक सत्ता आत्मा ही अपनी अन्तर्निहित शक्ति ‘चेतना’ के माध्यम से विचार, अनुभव आदि कार्य-व्यवहार संपादित करती है । ‘चेतना’ पूर्णतः एक अपदार्थिक सत्ता है जो स्वयं अपने स्वरूप में अस्तित्वमान रह सकती है । किन्तु मानव-शरीर का निर्माण केवल मानव-कोशिका से होता है जो जीवद्रव्य, केन्द्रक, कोशिका सार, गुणसूत्र, डी.एन.ए. आदि तत्त्वों के साथ-साथ जीवित-कोशिका से समन्वित होती है ।

उपक्रम

अनेक भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों अथवा वैज्ञानिकों ने चैतन्य आत्मा के विषय में अपने-अपने ढंग से विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । प्राचीन काल से ही वर्तमान पर्यन्त आत्मा का यथार्थ स्वरूप, अवस्थिति, यथार्थ अनुभवकर्ता कौन? इत्यादि प्रश्नों के ऊपर नानाविध चर्चाएँ होती आ रही हैं किन्तु अभी तक एक सर्वस्वीकृत मत प्रतिष्ठापित नहीं हो पाया है । इस प्रसंग में वैज्ञानिक निरीक्षण तथा आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से उक्त विषय का समीचीन विशेषण करने का प्रयत्न किया गया है । ब्रह्माकुमारीज आध्यात्मिक संस्थान के मुख्य प्रवक्ता अध्यात्म-विज्ञानी ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र स्वीय अद्वितीय कृति ‘अविनाशी नाटक’ में तथा अन्य कतिपय पुस्तकों में आध्यात्मिक ऊर्जा ‘आत्मा’ अथवा ‘पुरुष’ के सन्दर्भ में अनेकविध विज्ञान-सम्बन्धी उद्धरणों तथा सिद्धान्तों को प्रस्तुत कर ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन द्वारा प्रतिपादित एक सार्वभौमिक, सुनिश्चित तथ्य को उपस्थापित करते हैं । प्रस्तुत लेख, शरीर एवं चेतना सम्बन्धी विषय पर आधुनिक विज्ञान (मुख्यतः शरीर-क्रिया विज्ञान) तथा ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान के प्रकाश में एक विशेष अनुशीलन है ।

जीवित शरीर एवं चेतन्य आत्मा

ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान प्रतिपादन करता है- शरीर के अतिरिक्त एक ऐसी सत्ता है जिसकी तात्त्विक प्रकृति है- ‘चेतना’ । यह अन्तर्विवेकशील सत्ता अपने ‘जीवित’ शरीर का उपयोग प्रत्यक्षण तथा क्रियाओं के उपकरणों के संयोजन के रूप में करती है । वह एक ‘जीवित’ शरीर के माध्यम से सुख तथा पीड़ा का अनुभव करती है एवं उसे ही ‘आत्मा’ संज्ञा दी जाती है । शरीर ‘जीवित’ रहता है और मृत्यु को प्राप्त करता है, किन्तु आत्मा सदैव जीवित रहती है । मनुष्य स्वयं एक चैतन्य आत्मा है एवं उसका शरीर अभिव्यक्ति का एक अद्भुत माध्यम है ।

इस प्रसंग में वैज्ञानिकों द्वारा यह उद्घोषित किया गया है कि किसी जीवित प्राणी के मुख्य तीन गुणधर्म होते हैं- उपापचयन (Metabolism), संवृद्धि (Growth) एवं बहुगुणन (Multiplication) । प्राणी पर्यावरण से अणु संग्रहण करती है, स्वयं के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक सामग्रियाँ प्रतिधारण करती है तथा उच्छिष्ट पदार्थों का त्याग कर निरस्त कर दती है । वह अन्दर से वर्धित होती है तथा एक से दो होती हैं, इस प्रकार बहुगुणित होती रहती हैं । क्योंकि डी.एन.ए. (Deoxy Ribo-Nucleic Acid) अणुओं तथा जीनों (Genes) के पास संवृद्धि का कूट (Code) या संवृद्धि की आयोजना होती है, वे प्रतिकृतिकरण या द्विरूपकरण में सक्षम होते हैं इसलिए उसे ‘जीवन का अणु’ समझा जाता है । परन्तु डी.एन.ए. एन्जाइमों (Anzymes) अर्थात् डी.एन.ए. बहुकारक (Polymerase) के बिना अकेले ही स्वयं का द्विरूपकरण नहीं कर सकता । स्व-द्विरूपकरण संपूर्ण अविकल कोशिका का एक गुणधर्म है; डी.एन.ए. अणु स्वयं ही परख-नली मंन जनन नहीं करते । इसके अतिरिक्त डी.एन.ए. स्वयं अपने एन्जाइमों का द्विरूपकरण नहीं कर सकता । इसलिए, डी.एन.ए. जीवन के सामान्यतः सहमत लक्षणों को पूरा नहीं करता । डी.एन.ए. जीवित कोशिका के बाहर कार्य नहीं करता, बल्कि जीवित कोशिका के भीतर कार्य करता है ।

वैज्ञानिक जेम्स वाट्सन (James Watson) अपनी पुस्तक में वर्णन करते हैं- “जीवन एक समन्वित रासायनिक क्रिया है ।” किन्तु यह तथ्य बना रहता है कि समन्वित रासायनिक क्रिया तथा स्थितियों के माध्यम से जीवन निर्मित नहीं किया जा सकता है, बल्कि वह सामग्री निर्मित की जा सकती है जो जैव सामग्री के सदृश हो जिसे कोशिका-मुक्त तन्त्र (Cell-free system) कहते हैं । ए.टी.पी (Adenosine Triphosphate) के बाहर सक्रिय कारक एन्जाइमों, बहुकारकों तथा एटीपी को परख-नली में पाया जा सकता है एवं प्रोटीन संश्लेषण को देखा जा सकता है; किन्तु ये संरचनायें उपापचयन का कार्य कर सकती हैं, बढ़ सकती हैं तथा बहुगुणित हो सकती हैं तथापि ये स्वयं में जीवित रूप नहीं हैं ।

वैज्ञानिकों द्वारा (सिडनी फॉक्स द्वारा प्रोटीनॉएडों का संश्लेषण, अमीबा को संश्लेषित करने का प्रयत्न आदि) प्रयोग किये गये परीक्षणों से स्पष्ट होता है कि प्रोटीनों, डी.एन.ए. आदि जैसे अनेक महत्वपूर्ण संघटकों या घटकों को प्रयोगशाला में संश्लेषित किया जा सकता है तथा किसी ‘जीवित शरीर’ जैसी या सदृश किसी चीज़ को संश्लेषित किया जा सकता है, यद्यपि किसी परख-नली में जीवन के समरूप कोई चीज़ उत्पन्न नहीं की जा सकती है । नोबेल प्राइज विजेता रसायनज्ञ ज़ेन्ट ग्योर्जी (Szent Gyorgi) ने स्पष्ट अभिहित किया है : “जीवन के रहस्य की मेरी खोज में मुझे एटम और इलेक्ट्रॉन मिले, तथापि उनमें कदापि जीवन नहीं है । कहीं इस दिशा में जीवन मेरी अंगुलियों से निकल गया है । इसलिए अपनी वृद्धावस्था में मैं अपने कदमों को फिर से खोज रहा हूँ ।” इससे स्पष्टतः प्रकट होता है शरीर भौतिक संघटकों से निर्मित होता है । किन्तु वैज्ञानिक जो कुछ भी संश्लेषित कर सकते हैं उसमें चेतना का अभाव है जो किसी जीवित प्राणी का आवश्यक लक्षण है । प्रोटीनॉएडों या डी.एन.ए. में सोचने, अनुभव करने या संवेगों तथा मनोभावों को अभिव्यक्त करने की योग्यता नहीं होती ।

ब्र.कु. जगदीश मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि अतः संक्षेप में यही कहा जा सकता है- पदार्थ दो प्रकार का होता है 1. मृत पदार्थ (अजीव) तथा 2. जीवित पदार्थ (जीव) । जब पदार्थ किसी रासायनिक या जैव रचना होती है तब वह उपापचय का कार्य करता है, बढ़ सकता है तथा बहुगुणित हो सकता है । एवं वह पदार्थ चेतना के लिए अभिव्यक्त होने या कार्य करने का एक उपयुक्त माध्यम बन जाता है । उक्त पदार्थ की क्रियाशील मानव-कोशिका जीवद्रव्य (Protoplasm), केन्द्रक (Nucleus), कोशिका सार (Cytoplasm), गुणसूत्र (Chromosomes), डी.एन.ए. आदि सभी तत्त्वों के साथ-साथ ‘जीवित कोशिका’ (Living Cell) से समन्वित होती है । यद्यपि स्वयं उस पदार्थ अथवा कोशिका में चेतना का गुण नहीं होता है तथापि चेतना के प्रभाव के अन्तर्गत आने से प्रतीत होता है कि उसमें चेतना का गुण है । क्योंकि वस्तुतः चेतना का स्रोत जिसे ‘आत्मा’ कहा जाता है, पूर्णतः एक भिन्न अभौतिक व अपदार्थिक सत्ता है एवं उस अभौतिक सत्ता ‘आत्मा’ के संपर्क में रहने से वह पदार्थ (जीवित शरीर) चैतन्यमय आभासित होता है ।

इस प्रकाश में चिन्तन करने पर ‘जीवन’ भौतिक अस्तित्व की उस अवस्था को दिया गया नाम है जब किसी भौतिक तन्त्र में आत्मा होती है और उसकी चेतना कार्यशील रहती है, भले ही वह निम्न मात्रा में क्रियाशील हो । अन्य शब्दों में, क्रियाशील शरीर की अवस्था या अवस्थाओं को ‘जीवन’ विशेषतः तब कहा जाता है जब उसमें कोई आत्मा निवास करती है, जबकि आत्मा एक अभौतिक सत्ता है और स्थूल शरीर को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व हो सकता है या अस्तित्व की अवस्था या अवस्थायें हो सकती हैं ।

‘चेतना’ आत्मा के आवश्यक विशेषणों में से एक विशेषण है जिससे आत्मा के अस्तित्व की सूचना निर्विवाद रूप से प्राप्त होती है । चेतना अभिव्यक्त हो सकती है या सुप्त हो सकती है । इस अर्थ में यद्यपि जीवन तथा चेतना किसी भौतिक तन्त्र में घनिष्ठता से सम्बद्ध हो सकते हैं तथापि उनके दो भिन्न अर्थ हैं । कोई शरीर कुछ समय के लिए, चाहे वह कितना छोटा हो जीवित शरीर में तब भी बना रह सकता है जब आत्मा ने उसे छोड दिया हो और वह वातावरण में विचरण कर रही हो । इस अवस्था में शरीर में चेतना नहीं होगी, फिर भी उसमें तीन स्वीकृत लक्षण हो सकते हैं । तथापि उसे पुनर्जीवित करने की किसी प्रक्रिया के जरिए सामान्य अवस्था में लाया जा सकता है और आत्मा भी पुनः लौट सकती है या उस माध्यम के जरिए स्वयं को अभिव्यक्त कर सकती है । दूसरे शब्दों में, आत्मा अपनी चेतना तथा अपने अन्य गुणों के साथ किसी भौतिक शरीर के बिना अस्तित्व में रह सकती है एवं कोई भौतिक शरीर कुछ समय के लिए किसी जीवित शरीर के बिना ही जीवित शरीर बना रह सकता है । यह समय इस बात पर निर्भर होता है कितनी देर तक कोई जीव (Organism) अपनी तीन स्वीकृत विशेषताओं या तीन क्रियाओं को कायम रख सकता है ।

पुनश्च ब्रह्माकुमार जगदीश अभिधान करते हैं कि इस सत्य को न जानने के कारण मनुष्य स्वयं को एक जीवित शरीर समझता है । वह इस सत्य को सहजता से भूल जाता है या नजरअंदाज कर देता है कि वह एक ‘आत्मा’ है जिसके पास सोचने, अनुभव करने, स्मरण करने तथा परखने की योग्यतायें हैं । किन्तु वह इन योग्यताओं को मन से सम्बद्ध करता है या उनका श्रेय मन को देता है, जिसके बारे में उनके पास कोई स्पष्ट विचार नहीं है या जिसे अज्ञानता के कारण एक सूक्ष्म भौतिक सत्ता या मस्तिष्क का एक कार्य मानता है । वास्तवतः ‘चेतना’ या ‘मन’ जिसकी अभिव्यक्ति, विचार, भावना, निर्णय आदि के रूप में होती हैं, शाश्वत है तथा शरीर से भिन्न है और मन या आत्मा अभौतिक सत्ता है जो मस्तिष्क में उपस्थित रहकर कार्य संपादित करती है ।

शरीर और चेतना : दो भिन्न वास्तविकतायें

ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार शरीर पदार्थ के तत्त्वों से रचित है । ‘चेतना’ न तो इन तत्त्वों का गुण है और न ही उनमें से किन्हीं भी तत्त्वों के संयोजन का गुण है । ‘चेतना’ अभौतिक या आध्यात्मिक सत्ता आत्मा की अन्तर्निहित एक शक्ति है । आधुनिक विज्ञान के प्रकाश में शरीर-क्रिया विज्ञान से यह ज्ञात होता है कि शरीर कोशिकाओं से निर्मित होते हैं एवं कोशिकायें अणुओं से निर्मित होती हैं । पुनश्च शरीर की कोशिकायें निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं और प्रायः सात वर्षों की अवधि में पुरानी कोशिकाओं में इतना अधिक परिवर्तन होता है कि उस अवधि के अन्त तक नई कोशिकाओं द्वारा उन कोशिकाओं को ‘प्रतिस्थापित’ कर दिया जाता है । अतः शरीर में वह एक भी कोशिका नहीं होती जो सात वर्ष पहले थी । इस प्रकार शरीर वही नहीं रहता जैसा कि वह सात, चौदह या इक्कीस वर्ष पहले था । बाल्यकाल में किया गया किसी व्यक्ति का अनुभव अथवा अन्य सभी घटनाओं के स्मरण से (जो हर सात वर्ष के पूर्व का पश्चात् में होता रहता है) स्पष्टतः सूचित होता है- सचेतन सत्ता ‘चेतना’ तथा ‘शरीर’ दो भिन्न सत्तायें हैं । यद्यपि शरीर आयु के साथ परिवर्तित होता है तथापि आत्मा अपनी अनन्यता व निरन्तरता कायम रखती है । इसके विपरीत किसी व्यक्ति को मात्र एक शरीर (मस्तिष्क सहित) समझा जाय तो उसकी निरन्तर अनन्यता तथा निरन्तर व चेतना के तथ्य की व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि उसके शरीर तथा मस्तिष्क की कोशिकाओं में सात वर्षों के पश्चात् बहुत अधिक परिवर्तन हो चुका होता है ।

इसके अतिरिक्त, ‘शरीर’ तथा ‘चेतना’ दोनों की पूर्णतः भिन्न-भिन्न वास्तविकता के स्वरूपों को प्रकटित करने के लिए सामान्य ज्ञान (जो स्पष्ट रूप से दैनन्दिन जीवन में अनुभूत होता रहता है) का आधार लेकर ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उल्लिखित करते हैं - शरीर थक जाता है किन्तु चेतना थकती नहीं है, तथापि चेतना केवल ऊब सकती है । शरीर की भौतिक ऊर्जा निःशेष हो सकती है, किन्तु चेतना मानसिक, तात्त्विक या आध्यात्मिक ऊर्जा की अनिःशेषता का अनुभव कर सकती है और वस्तुतः वह ऊर्जा वर्षों के साथ बढ़ती है । शरीर वर्षों के बीतने से बूढ़ा हो जाता है, किन्तु मन केवल अधिक प्रज्ञावान तथा अधिक अनुभवी हो जाता है । हृदय जो शरीर का एक भाग है, आयु के बढ़ने के साथ कमजोर हो सकता है, किन्तु चेतना या मन की घृणा करने की या प्रेम करने की शक्ति बढ़ सकती है । इस प्रकार ये दो भिन्न सत्तायें हैं- शरीर, कोशिकीय तथा आणविक होने के कारण भौतिक है; किन्तु मन, चेतना या आत्मा- मानसिक, आध्यात्मिक, अतिभौतिक, आधिभौतिक, अभौतिक अथवा पराभौतिक सत्ता है ।

चेतना : मस्तिष्क से पृथक् सत्ता

ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र अपनी पुस्तक के “शरीर से बाहर का अनुभव” अनुभाग में दो अलौकिक विषयों (प्रजापिता ब्रह्माकुमारी संस्था के संस्थापक प्रजापिता ब्रह्माबाबा और सर ऑकलैन्ड गेड्डे के जीवन से सम्बन्धित वृत्तान्त) का दृष्टान्त प्रदर्शित कर निष्कर्ष रूप में अतीन्द्रिय चेतना तथा मस्तिष्क सम्बन्धी मन्तव्य प्रकटित करते हैं-

‘चेतना’ आत्मा का ही अन्तर्निहित गुण है । आत्मा चेतना के माध्यम से ही कार्य करती है, किन्तु मस्तिष्क उस चेतना को परिसीमित कर देता है । मस्तिष्क उसे केवल त्रि-आयामीय वस्तुओं का अनुभव करने योग्य बना देता है, परन्तु शरीर के बहिर्भूत आत्मा बहु-आयामीय अनुभव अथवा अतीन्द्रिय दर्शन कर सकती है ।

‘चेतना’ मस्तिष्क से पूर्णतः पृथक् है तथा अभिज्ञता की उच्चतर अवस्थाओं के साथ अशरीरी रूप में रह सकती है । वह अभिव्यक्त हो सकती है अथवा सुप्त भी रह सकती है । ‘चेतना’ कोई अनुघटन नहीं है, न ही कोई जैव-रासायनिक उत्पाद है और न ही मस्तिष्क के कार्य का परिणाम है । मनुष्य न केवल शरीर के बहिर्भूत सोच सकता है और अनुभव कर सकता है बल्कि देख भी सकता है और सुन भी सकता है । अतः विचार, प्रत्यक्षण, भावना, संकल्प, स्मृति आदि अमस्तिष्कीय कार्य हैं । सोचने तथा इच्छा करने का कार्य मस्तिष्क द्वारा नहीं किया जाता । संकल्प या इच्छा उस सत्ता से सम्बन्धित हैं जो शरीर के बाहर अस्तित्वमान रह सकती है तथा अन्तर्विवेकशील है । आत्मा अपने साथ अपने विचारों, अपनी भवनाओं तथा अपने कार्यों के संस्कार ले जाती है जो कि सुषुप्त हो सकते हैं या अभिव्यक्त हो सकते हैं ।

निष्कर्ष

इस प्रकार एक नवीन दृष्टिकोण के साथ ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र ने अतीन्द्रिय आध्यात्मिक चेतना तथा जड़ देह के अन्तर का विवेचन स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर मनुष्य को अपने लक्ष्य की ओर प्रगतिशील होने की प्रेरणा प्रदान की है । यद्यपि मनुष्य अपने अनुभवात्मक ज्ञान का प्रयोग समयानुसार करता रहता है परन्तु ‘स्वयं’ का सत्य स्वरूप क्या है?- इस सन्दर्भ में अपने को सामान्य मानव-मात्र समझकर वह कार्य करने में अग्रसर होता रहता है जिससे उसकी स्थिति सदाकाल के लिए एकरस व सन्तुष्टता की नहीं रहती है । वास्तव में मनुष्य स्वयं एक अन्तर्विवेकशील चैतन्य सत्ता है जो कि देह का उपयोग कर अपने कार्यों का निष्पादन करता है । इस यथार्थ ज्ञान के अवबोध से ही उसका मानसिक दृष्टिकोण पूर्णतया परिवर्तित होकर एक श्रेष्ठ, मूल्यनिष्ठ समाज या संसार के नवनिर्माण में वह एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकता है । मानव ईश्वर की अनुपम रचना है, किन्तु अपनी वास्तविक पहचान व अनुभव होने से ही उस परमेश्वर के समस्त गुण अथवा शक्तियाँ उसके द्वारा अभिव्यक्त हो सकते हैं ।

सन्दर्भग्रन्थसूची

1. प्रकृति, पुरुष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण

2. एक अद्भुत जीवन कहानी, भाग-1, संपा. ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान

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11. Biology To-day, Del Mar, CRM Books, California, 1972.

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13. Microbiology - A human perspective, Eugene W. Nester and others, McGraw Hill, New York, 3rd edition.

14. Gene Cloning and DNA Analysis : An Introduction, T.A. Brown, Blackwell Science Ltd, Oxford, U.K, 4th edition.

सृष्टि-संरचना : एक अनुशीलन
(भारतीय दर्शन, विज्ञान एवं ब्रह्माकुमारी दर्शन के सन्दर्भ में)

जीवन तथा सृष्टि-सम्बन्धित रहस्यों को उद्घाटित करने हेतु जिज्ञासु एवं प्रवृत्तिशील मनुष्यों के मानस में चिन्तनधारा प्रवाहित होती आ रही है । जबसे मानव ने अपने अस्तित्व एवं दृश्यमान बाह्य जगत् को जानने का प्रयास किया, तबसे उसकी बौद्धिक-चिन्तनशैली दार्शनिक व आध्यात्मिक दिशा को प्राप्त होती रही है । वैदिक काल से प्रारम्भ कर अद्यावधि अनेक दार्शनिक, वैज्ञानिक, विद्वान्, मनीषी स्व-बुद्धि-शक्ति का सम्यक् उपयोग कर सृष्टि-विषयक गंभीर तथ्यों के ऊपर मत प्रस्तुत करते आये हैं ।

क्रान्तदर्शी वैदिक ऋषियों ने मानस-चक्षु से साधना की श्रेष्ठ स्थिति में स्थित रहकर जिस सत्य का प्रत्यक्ष किया था, उसी के आधार पर समग्र वैदिक वाङ्मय का सृजन हुआ है । उस ज्ञान की अनुपम निधि वेद के हिरण्यगर्भ, नासदीय, पुरुष आदि कतिपय दार्शनिक सूक्तों में सृष्ट्युत्पत्ति-पूर्व की अवस्था तथा सृष्टि-सर्जना विषयक तथ्य मनोरम रूप में प्रतिफलित हुए हैं ।

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । (ऋ. 10.121.1)
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् । (ऋ. 10.129.1)

तस्माद् विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ (ऋ. 10.90.5)


पुनश्च ऋग्वैदिक त्रिमन्त्रात्मक अतिक्षुद्र सूक्त भाववृत्त भी सृष्टि-विषयक गहन तथ्य को उपस्थापित करता है ।
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽभ्यजायत ।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥ (ऋ. 10.190.1)


इसी प्रकार वैदिक वाङ्मय अर्थात् संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् में सृष्टि-विज्ञान सम्बन्धित तथ्यों का विविध रूप से वर्णन किया गया है । उपनिषद् जो कि अध्यात्म व दार्शनिक क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, में जगत्, आत्मा, ईश्वर आदि सृष्टि के अङ्गभूत तत्त्वों के ऊपर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है । विद्वज्जनों के आख्यानानुसार समग्र उपनिषद्-रूप ज्ञानराशि के सारभूत शास्त्र श्रीमद्भगवद्गीता में सम्पूर्ण अध्यात्म-तत्त्वों के विषय सन्निविष्ट हैं । तत्त्वदर्शियों के मत में संसार में किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, अपितु रूपान्तरमात्र ही संघटित होता है । गीता में यह तथ्य उल्लिखित है-
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । (गीता. 2.16)

अर्थात् असत् वस्तु की सत्ता नहीं है तथा सत् वस्तु का अभाव भी नहीं है । पुनः सृष्टि को एक अविनाशी वृक्ष के रूप में उपमित कर वर्णन किया गया है-
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ (गीता. 15.1)


फिर विश्व-ब्रह्माण्ड इत्यादि जागतिक तत्त्वों का समुद्भव कैसे हुआ? यह रहस्यात्मक विषय ज्ञातव्य है । इसी क्रम में पुराणों में भी सृष्टि-प्रक्रिया का सुस्पष्ट निदर्शन प्राप्त होता है ।

वैदिक सृष्टि-विज्ञान संबंधित गुह्य तथ्यों पर विश्लेषण करने हेतु तथा तार्किक शैली में उपस्थापित करने के उद्देश्य से विविध दार्शनिक शाखाओं का समुन्मेष हुआ है । प्रमुखतया वेदान्त, सांख्य, न्याय एवं बौद्ध - चारों भारतीय दर्शनों ने सृष्टि-तत्त्व के सन्दर्भ में एक-एक अभिनव पथ को प्रदर्शित किया है जो कि सत्कारणवाद, सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद एवं असत्कारणवाद नाम से विदित है । इन चारों दार्शनिक शाखाओं द्वारा स्थापित उक्त सृष्टि-सर्जनात्मक तथ्यों को क्रमशः एक-कारणतावाद, द्वि-कारणतावाद, अनेक-कारणतावाद व शून्य-कारणतावाद के नाम से अभिहित किया जा सकता है तथा उपर्युक्त कारणतावाद-चतुष्टय के अन्तर्गत ही अवशिष्ट समस्त दार्शनिक शाखाओं का समावेश हो जाता है ।

एक-कारणतावाद, जो कि अद्वैत-वेदान्त दर्शन द्वारा प्रतिष्ठापित है, में एकमात्र कारण ब्रह्म है, जिससे ही कृत्स्न जगत् की अभिव्यक्ति हुई है । महर्षि बादरायण-प्रणीत ब्रह्मसूत्र के ‘जन्माद्यस्य यतः’ (ब्र.सू. 1.1.2) सूत्र पर रचित शाङ्करभाष्य में इसका विशद विवेचन किया गया है । शैव दर्शन भी इस एक-कारणतावाद के सपक्ष में है, जिसमें एकमात्र परमसत्ता शिव से सकल जगत् की रचना का विषय वर्णित है । सांख्यदर्शन प्रतिपादित द्वि-कारणतावाद के अनुसार चैतन्य पुरुष और जड़ प्रकृति के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है । ईश्वरकृष्ण-कृत सांख्यकारिका में इसका दृष्टान्त उपलब्ध है-
पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य ।
पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत् कृतः सर्गः ॥ (सां.का, 21)


न्याय-वैशेषिक-दर्शन-प्रधान अनेक-कारणतावाद के अनुसार समग्र जगत् सामूहिक कार्यरूप है । इस जगत् में स्थित प्रत्येक कार्यरूप पदार्थ के पृथक् पृथक् कारण हैं, वे मूलतया परमाणुरूप हैं एवं एक परमाणु का अन्य परमाणु के साथ संयोग निमित्त कारण ईश्वर के द्वारा संपन्न होता है । जैनदर्शन में जीव, अजीव आदि अनेक तत्त्वों का वर्णन कर अनेक-कारणतावाद सिद्धान्त को प्रकट किया गया है । मीमांसादर्शन एवं चार्वाकदर्शन भी इस वाद का समर्थन करते हैं । शून्य-कारणतावाद सिद्धान्त के पक्षधर बौद्धदर्शन में शून्य-रूपात्मक जगत् की अभिव्यक्ति का स्पष्टतः उल्लेख प्राप्त होता है ।

इसी प्रकार प्रत्येक दार्शनिक शाखा के मूर्धन्य विद्वानों ने उक्त सृष्टि-संबंधी विषय को प्रस्तुत करने के लिए यथातथ्य तर्कादि द्वारा स्व-स्व सैद्धान्तिक मतों को पुष्ट किया है । प्राचीन दार्शनिकों ने अपनी उच्चतर मनःस्थिति के माध्यम से प्रसंग को उपस्थापित करने हेतु तर्क व प्रमाणादि का चयन किया है तथा फलस्वरूपतः स्वकीय दार्शनिक शाखा को एक उच्च स्तर पर अवस्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया है ।

सृष्टि व तत्संबंधित रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करने हेतु जो प्रयास किया गया है उसमें एक दार्शनिक शाखा के सिद्धान्त में जो न्यूनता परिलक्षित हुई है, उसको पूर्वपक्ष के रूप में सादर स्थान प्रदान कर, परिहार करने के लक्ष्य से उत्तरपक्ष के रूप में अन्य दार्शनिक शाखा, अपने सिद्धान्त को प्रामाणिक रीति से सयुक्तिक भिन्न-भिन्न तथ्यों का समावेश कर प्रतिष्ठापित करती है । अतः चार्वाक दर्शन से आरम्भ कर अद्वैत-वेदान्त दर्शन पर्यन्त दार्शनिक परम्परा की स्थिति उपस्थित हुई अथवा भौतिकता की पृष्ठभूमि से लेकर पारमार्थिक अवस्था तक पहुँचने की क्रमिक गति आकलित की गई है ।

वर्तमान समय में विज्ञान की सर्वांगीण प्रतिष्ठा है, क्योंकि विज्ञान किसी भी वस्तु के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए समुचित साधनों का उपयोग कर अनुभूत सिद्धान्तों को सर्वसमक्ष उपस्थित कर देता है । अतः विज्ञान के निष्कर्ष निश्चित तथा पूर्णतया स्पष्ट स्वीकार किये जाते हैं । विज्ञान मुख्यतः जड़ प्रकृति में संघटित क्रिया-प्रतिक्रिया को विधिपूर्वक जानने, परीक्षण करने तथा प्रयोग करने के ऊपर ध्यान देता है । सृष्टि-संरचना के क्षेत्र में विज्ञान के दो प्रमुख आयामों का अवलोकन किया जाता है । प्रथमतः शास्त्रीय भौतिकी (Classical Physics) जिसमें प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन के द्वारा प्रदत्त सिद्धान्त उल्लेखनीय है एवं द्वितीयतः आधुनिक भौतिकी (Modern Physics) जिसमें प्रख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइन का सामान्य और विशेष सापेक्षता का सिद्धान्त (General & Special Theory of Relativity), जेम्स क्लॉर्क मैक्सवेल का तापगतिकी सिद्धान्त (Theory of Thermo-dynamics), मैक्स प्लैंक का क्वाण्टम सिद्धान्त (Quantum Theory) तथा हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धान्त (Principle of Uncertainty or Indeterminism) सर्वप्रमुख व प्रायः सर्वस्वीकृत हैं ।

न्यूटन के द्वारा प्रतिष्ठापित सिद्धान्त, पाश्चात्य दार्शनिक व गणितज्ञ रेने डेकार्त के मत पर अवलम्बित है, जिसमें मन (Mind) एवं द्रव्य (Matter) - दो मुख्य तत्त्वों के ऊपर विमर्श किया गया है । न्यूटन के सिद्धान्तानुसार विश्व की अवस्थिति, त्रि-आयामीय अवकाश (Space) पर है, जिसमें समस्त भौतिक घटना संघटित होती है । यह अवकाश सदा निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनशील है । पुनश्च भौतिक जगत् में होने वाले परिवर्तन को वर्णित करने का आधार समय भी निरपेक्ष है तथा वह जगत् से पूर्णतः असंबद्ध व निरन्तर प्रवहमान है । जगत् के समस्त तत्त्व, भौतिक कण जो कि नितान्त सूक्ष्म, ठोस तथा परिवर्तन-रहित हैं, इन दोनों निरपेक्ष अवकाश-समय (Space-time) के अन्तर्गत ही गतिशील होते हैं । न्यूटन की दृष्टि में, सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर ने भौतिक कणों का निर्माण, उनमें बल तथा गतिमान होने की क्षमता उत्पन्न की । इसी प्रकार समग्र विश्व गतिशीलता को प्राप्त हुआ एवं अपरिवर्तनीय नियमों के द्वारा एक यन्त्र की भाँति चल रहा है ।

परन्तु 20वीं शताब्दी में विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने जब सापेक्षता के सिद्धान्त (Theory of Relativity) और मैक्स प्लैंक ने क्वाण्टम सिद्धान्त (Quantum Theory) को स्थापित किया, तब न्यूटन का जगत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण परिवर्तित हो गया तथा आधुनिक भौतिक-विज्ञान (Modern Physics) का शुभारम्भ हुआ । प्रथमतः अल्बर्ट आइन्स्टाइन के ‘सापेक्षता का सिद्धान्त’ के अनुसार अवकाश (Space) त्रि-आयामी नहीं है और न ही समय (Time) की कोई पृथक् स्थिति है । दोनों का पारस्परिक अन्तःसंबंध होकर एक चतुः आयामीय सातत्यक (Four-dimensional continuum) का गठन होता है । अतः अवकाश की स्थिति समय के बिना अथवा समय का कथन अवकाश के बिना संभव नहीं । दोनों की सापेक्षता, न्यूटन के निरपेक्ष अवकाश-समय (Absolute space-time) मत को निरस्त कर देती है ।

पुनश्च न्यूटन द्वारा प्रतिपादित भौतिक तत्त्व वा कण सम्बन्धित मन्तव्य का भी निरसन हो जाता है । यह भौतिक तत्त्व ठोस नहीं है, अपितु ऊर्जारूप है । तापगतिकी के प्रथम नियमानुसार ऊर्जा की न ही उत्पत्ति और न ही विलय होता है, केवल रूपान्तरण-मात्र घटित होता है ।

द्वितीयतः क्वाण्टम सिद्धान्त के अनुसार भौतिक जगत्, परमाणुओं का संघातरूप है और वह परमाणु भी इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन उप-परमाणुओं का समाहार है । अर्थात् भौतिक जगत् में निरन्तरता नहीं है, परन्तु सूक्ष्म विच्छिन्न भौतिक ऊर्जा कणों का समूह ही विद्यमान है । प्रकाश की धारा भी अविच्छिन्न नहीं है, किन्तु उसमें भी पृथक् पृथक् सूक्ष्म प्रकाश कण समाविष्ट हैं । यह प्रकाश, कण तथा तरंग उभय रूप में प्रतीत होता है । आइन्स्टाइन ने क्वाण्टम सिद्धान्त को आधार बनाकर मत प्रस्तुत किया है कि सभी प्रकार के विकिरण-रूप ऊर्जा, प्रकाश, ताप, क्ष-किरण (x-ray) आदि वास्तवतः अवकाश के माध्यम से पृथक् वा विच्छिन्न रूप से गतिशील होते हैं । प्रकाश कणों को ही फोटॉन (Photon) नाम से नामित किया गया है ।

तृतीयतः जर्मन भौतिकीविद् हाइजेनबर्ग द्वारा प्रतिपादित अनिश्चितता का सिद्धान्त (Principle of Uncertainty) के फलस्वरूप न्यूटन एवं डाल्टन के परमाणु विषयक सिद्धान्त खण्डित हो जाते हैं तथा पारमाणविक जगत् में एक नवीन दृष्टिकोण प्राप्त होता है । किन्तु आइन्स्टाइन ने इस सिद्धान्त को अस्वीकार किया है । अनिश्चितता सिद्धान्त के अनुसार- विज्ञान को अबतक ज्ञात किसी भी सिद्धान्त के सहारे किसी इलेक्ट्रॉन की स्थिति और उसके वेग को निश्चित करने और उसी के साथ विश्वास-पूर्वक यह कहना कि कोई इलेक्ट्रॉन ‘ठीक यहाँ’ है और ‘इतनी-इतनी गति से’ गतिशील है, असंभव है क्योंकि उसकी स्थिति का प्रेक्षण करने के कार्य से ही उसका वेग बदल जाता है और विलोमतः, मनुष्य उसके वेग को निश्चित करने की कोशिश जितनी ही अधिक करता है उतनी ही अधिक अनिश्चित उसकी स्थिति हो जाती है । पुनश्च इस सिद्धान्त का अन्य तात्पर्य यह है कि कारण-कार्य सम्बन्ध का प्रयोग क्वाण्टम या उप-पारमाणविक जगत् के क्षेत्र में नहीं हो सकता ।

चतुर्थतः मैक्सवेल प्रतिपादित तापगतिकी (Thermo-dynamics) के द्वितीय नियम के अनुसार विश्व में भौतिक तत्त्व वा प्रकृति, जो कि चिरस्थायी है, निरन्तर परिवर्तित हो रही है और वह परिवर्तन, विच्छेदन की ओर सूचित कर रहा है । प्रकृति की समस्त संघटना, जो कि अणु तथा बाह्य अवकाश में घटित हो रहा है, सूचित कर रही है कि द्रव्य और विश्व की ऊर्जा अनवरत रूप से विकीर्ण हो रही है अर्थात् उपलब्ध ऊर्जा की मात्रा में हानि हो रही है, जिसे एन्ट्रॉपी (Entropy) नाम से अभिहित किया गया है । इसी दृष्टि से विश्व में स्थित ऊर्जा अन्ततः शून्यता को प्राप्त करने की संभावना हो रही है । अतः विश्व उष्मा-मृत्यु (Heat-death) की ओर अग्रसर हो रहा है, जिसको अत्यधिक एन्ट्रॉपी (Maximum Entropy) की अवस्था द्वारा परिभाषित किया गया है । फलतः प्रकृति की समग्र प्रक्रियाएँ अवरुद्ध हो जायेंगी ।

पञ्चमतः सृष्ट्युत्पत्ति के विषय में विज्ञान के अत्यन्त लोकप्रिय तथा प्रचलित सिद्धान्त बिगबैंग सिद्धान्त (Bigbang Theory) महत्त्वपूर्ण है, जो कि 1927 में खगोलशास्त्री जर्ज एडवर्ड लिमाइत्रे द्वारा प्रथम प्रस्तावित किया गया एवं खगोल-भौतिकीविद् जर्ज गेमो के समर्थन और प्रचार-प्रसार से एक सिद्धान्त का रूप धारण किया । इस सिद्धान्त के अनुसार दूरस्थ अतीत के शून्य समय (Zero time) में ब्रह्माण्ड (विशाल द्रव्यमान) का प्रचण्ड विस्फोट हुआ । उस महाविस्फोट के अंश जो कि सभी दिशाओं में प्रचंडता से प्रक्षिप्त हुए, आकाशगंगायें बन गये । न केवल ब्रह्माण्ड के अंशों से आज की आकाशगंगायें बनीं, अपितु एक सूक्ष्म स्तर पर ब्रह्माण्ड खण्डित हुआ एवं इस प्रकार विभिन्न परमाणु तथा ज्ञात 108 मूल तत्त्वों का भी निर्माण हो गया । इस बिगबैंग सिद्धान्त में दृष्ट न्यूतता को दूरीभूत करने के लिये बाद में तीन वैज्ञानिक हरमन बॉण्डी, थॉमास गोल्ड तथा फ़्रेड हॉयल ने सतत निर्माण सिद्धान्त (The Continuous Creation Theory) या स्थायी अवस्था सिद्धान्त (The Steady-state Theory) का विवेचन प्रस्तुत किया ।

षष्ठतः विकासवाद के जनक, चार्ल्स डार्विन ने जीवन के उद्गम के विषय में अपना मत प्रस्तुत किया, जो डार्विन सिद्धान्त (Darwin Theory) के नाम से प्रख्यात हुआ । इस सिद्धान्त के अनुसार जीव एक आद्य सूप (Premodial soup) से उत्पन्न हुआ । उसके पहले निर्जीव द्रव्य था और पृथिवी पर सरलतम रूप में था, जैसे कि एक कोशिका अमीबा के रूप में जीवन का अस्तित्व नहीं था । तबसे अनेक वैज्ञानिकों ने जीवित कोशिका, जीवित अणु, जीवित प्रोटीनॉएड या जीवित अणु सूक्ष्म गोलक का संश्लेषण करने के लिए प्रयोग किये हैं । पुनश्च जीन से प्रारम्भ कर कोशिका, तन्त्र आदि के माध्यम से आधुनिक जीव-विज्ञान सन्दर्भित मनुष्य के निर्माण विषयक तथ्य पर दृष्टि दी गई है । सूक्ष्म जीव-विज्ञान के जनक लुईस पाश्चर का मत तथा सेल्ड्रेक का सिद्धान्त (Theory of Morphogenetic fields) इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं ।

इसी प्रकार से आधुनिक विज्ञान ने जीवन तथा जगत् के सृजनात्मक तथ्यों को उपस्थापित किया है । विज्ञान प्रतिपादित डार्विन सिद्धान्त तथा बिगबैंग सिद्धान्त पर अनेक वैज्ञानिकों ने न्यूनता दर्शाई है, जबकि सापेक्षता का सिद्धान्त (Theory of Relativity), क्वाण्टम सिद्धान्त (Quantum Theory) एवं तापगतिकी सिद्धान्त (Theory of Thermo-dynamics)- तीनों चरम तथा त्रुटिहीन सिद्धान्त के रूप में अधुना सर्वसम्मत हैं । अतः डार्विन सिद्धान्त (Darwin Theory) व बिगबैंग सिद्धान्त (Bigbang Theory) का विश्लेषण करना उपयोगी सिद्ध होगा ।

एवंतया दर्शन और आधुनिक विज्ञान, दोनों का सम्मिश्रित-रूप ही वास्तविक सत्य एवं तथ्य को उन्मोचित करने में समर्थ होगा । दर्शन का मुख्य उद्देश्य ही है सुनिश्चित प्रमाणों का अवलम्बन कर उक्त विषय का दिग्दर्शन कराना । अध्यात्म एक ऐसी दिशा है जो सिद्धान्तों वा मूल्यों इत्यादि के बारे में पक्षरहित तथा द्वेषरहित दृष्टि से और युक्ति तथा विवेक-सम्मत रीति से प्रकाश डालती है । अतः विज्ञान, दर्शन व अध्यात्म- दिशात्रय से विषय-वस्तु का अन्वेषण व परीक्षण करना ही सर्वोत्तम विधि सिद्ध होगी । एतत्सहित व्यावहारिक ज्ञान को भी समाविष्ट करना उपयोगी होगा क्योंकि इसकी अनिवार्यता सर्वस्वीकृत है तथा इससे प्रतिकूल विषय की यथार्थता भ्रान्ति की परिचायिका होती है ।

इसी दिशा में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, एक विश्वव्यापी आध्यात्मिक शिक्षण संस्थान, दर्शन-क्षेत्रावलम्बित तत्त्व-मीमांसीय चिन्तन-प्रणाली में एक विशेष व अभिनव पथ का दिग्दर्शन कराता है जिसमें सृष्टि-संरचना या सृष्टि-तत्त्व को विज्ञान-सम्मत, तर्कसंगत तथा युक्तिपूर्ण रीति से विवेचन करने का प्रयास किया गया है । मान्यतानुसार निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ के साकार माध्यम से जो ईश्वरीय महावाक्य या ज्ञान को प्रकट किया है, वही ब्रह्माकुमारी दर्शन का मूल स्रोत है । इस आध्यात्मिक शिक्षा संस्थान के मुख्य प्रवक्ता ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा ने उक्त ईश्वरीय ज्ञान के आधार से प्रसंगानुकूल विषय-वस्तु की सत्यता को वैज्ञानिक तथा दार्शनिक दृष्टिकोण से अनुशीलन कर एक सारभूत तथ्य को सर्वसमक्ष दृढ़ता के साथ प्रतिपादित या प्रतिष्ठापित करने का उद्यम किया है । ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार अचेतन वस्तु जगत् या भौतिक विश्व अजात तथा शाश्वत तत्त्वों का रूपान्तरण या प्रभाव है । द्रव्य के तत्त्व और तत्सहित उनके प्रभाव अविवेकी व उत्पादक हैं किन्तु स्वयं द्रव्य उत्पाद नहीं है क्योंकि वह शाश्वत है । द्रव्यरूप जगत् निरन्तर परिवर्तनशील होने के कारण अल्पकालिक है । परन्तु संपूर्ण जगत् आदि-द्रव्य या द्रव्य की पारमाणवीय अवस्था में कभी भी रूपान्तरित नहीं होता तथा न ही यह विश्व कभी मानव-प्राणियों से विहीन होता है । यह जगत् एक ब्रह्माण्डीय नाटक-रूप है जिसमें संघटित होने वाली प्रत्येक घटना का पुनरावर्तन हर 5000 वर्ष के उपरान्त चक्रीय गति से होता है । क्योंकि विश्व की घटनायें ऐसी हैं कि एक घटना दूसरी घटना का कारण और दूसरी घटना किसी अन्य घटना का कारण है एवं इस प्रकार कार्य-कारण की शृंखला अन्तहीन हो जाती है । अतः चक्र-रूप संघटित होने से विश्व-प्रक्रिया की शाश्वतता निश्चित होती है ।

विश्व एक स्व-पोषक, स्व-शाश्वतकारी (Self-perpetuating) तथा स्व-पुनरावर्ती चक्रीय तन्त्र है । यह जगत् एक उत्पाद नहीं है, अपितु इसमें पृथक् पृथक् निर्माताओं द्वारा निर्मित उत्पाद अन्तर्विष्ट हैं । संसार ऐसे उत्पादों का समूह है जिनके प्रकृति की शक्तियों के रूप में अपने-अपने निर्माता से और प्रत्येक संघटक की अन्तर्निहित प्रकृति अन्य प्रकृति से अन्तःक्रिया करती है । प्रकृति की वस्तुओं में एक प्रणाली है जो निश्चित वैश्विक नियमों के कारण है एवं उनसे वस्तुओं के कार्य विनियमित होते हैं । प्रकृति के ये नियम अनिर्मित हैं और सर्वदा विद्यमान हैं एवं रहेंगे । उदाहरणस्वरूप- बीज एक अन्तर्निहित आनुवंशिक कूट और विभव के अनुसार पौधा या पादप के रूप में विकसित होता है । इसके लिये किसी भी बाहरी सचेतन कर्ता या नियामक नियति की आवश्यकता नहीं होती जो उसका निर्माण करे । प्रकृति के कतिपय नियम उसकी वृद्धि की व्याख्या करते हैं, अन्यथा रचयिता कोई नहीं है । इसी प्रकार भौतिक जगत् का निर्माण किसी भी सचेतन कर्ता या ईश्वर के द्वारा नहीं हुआ है । किन्तु जब उभय आध्यात्मिक व भौतिक ऊर्जा में गिरावट आने से अधिकतम एन्ट्रॉपी की अवस्था पहुँच जाती है तब आध्यात्मिक ऊर्जा के उच्चतम बिन्दु स्रोत परमात्मा इस भौतिक जगत् में हस्तक्षेप करता है एवं ईश्वरीय ज्ञान तथा राजयोग के माध्यम से आध्यात्मिक एन्ट्रॉपी को उत्क्रमित कर देता है और अन्यपक्षतः परमाणु अस्त्रशस्त्र के विखण्डन, प्राकृतिक आपदाओं आदि द्वारा भौतिक एन्ट्रॉपी उत्क्रमित हो जाती है । जिससे एक पूर्ण व्यवस्थित व सन्तुलित जगत् की स्थापना होती है । मनुष्यात्माओं के नैतिक पुनरुत्थान या आध्यात्मिक नवीनीकरण द्वारा ही भौतिक विश्व में परिवर्तन होने से प्रकृति में पुनः ऊर्जा आती है एवं सृष्टिचक्र पुनः प्रारम्भ होता है । स्थूल जगत् शाश्वत है, ईश्वर केवल इसका रूपान्तरण या जीर्णोद्धार करता है जिसके कारण उसको ‘नूतन जगत्-निर्माता’ या ‘विश्व-रचयिता’ या ‘सृष्टिकर्ता’ के नाम से अभिहित किया जाता है । यह भौतिक जगत् आकाश नामक तत्त्व में अवस्थित है । किन्तु इस इस विश्व से भी ऊर्ध्व सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं का एक सूक्ष्म जगत् ‘अव्यक्त धाम’ एवं उसके पार निराकारी आत्माओं व ईश्वर का जगत् ‘ब्रह्म धाम’ नाम से सूक्ष्म विश्वद्वय हैं जो कि स्वयंप्रकाशी अचेतन महत्तत्त्व या ब्रह्म नामक तत्त्व में अवस्थित हैं । यह भौतिक विश्व यद्यपि आकार में विशाल किन्तु सीमित है द्रव्यमानरहित, गतिहीन, अनन्त ‘दिव्य द्रव्य’ ब्रह्म तत्त्व (ब्रह्माण्ड) रूपी परिवलयक द्वारा परिवेष्टित है । ब्रह्म जगत् से ही आत्मायें एवं परमात्मा इस स्थूल जगत् में अवतरण कर अपनी अविनाशी भूमिका लीला के रूप में प्रस्तुत कर पुनः कल्प के अन्त में स्वधाम की ओर प्रत्यावर्तन करते हैं । चतुःआयामीय अवकाश-काल सातत्यक रूपी इस भौतिक जगत् का पाँचवा नैतिक आयाम भी है जो जीवों की क्रिया की केवल प्रतिक्रिया के रूप में संघटित नहीं होती, अपितु उसके परिणामरूप कर्ता को मुख्यतः दुःख या सुख-दुःख का मिश्रण प्राप्त होता है ।

पुनश्च जगत् के स्वरूप के सन्दर्भ में दार्शनिक व वैज्ञानिक मतावलम्बित द्रष्टा और दृश्य या विषयी और विषय के मध्य सम्बन्ध का महत्त्वपूर्ण तथ्य भी विवेचनीय है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने सापेक्षता सिद्धान्त एवं एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त (Unified Field Theory) के माध्यम से प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है कि - द्रव्य एवं ऊर्जा परस्पर परिवर्तनीय हैं तथा भौतिक ऊर्जा के सभी रूप मूलतः एक ही हैं अर्थात् प्रकृति की समस्त शक्तियाँ (विद्युत्-चुम्बकीय, मेसॉन, गुरुत्वाकर्षण बल इत्यादि) वास्तवतः एक ही मूल शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं । इस प्रकार विज्ञान-प्रतिपादित क्वाण्टम सिद्धान्त एवं एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त क्रमशः व्यष्ट्यात्मक व समष्ट्यात्मक जगत् के स्वरूप की ओर इंगित करते हैं । आधुनिक भौतिकी की दो शाखाएँ क्वर्क्स (Quarks) एवं होलन (Holons), एतद्विषयक व्यष्टिक तथा समग्रता की अवधारणा प्रस्तुत करती हैं । दार्शनिक चिन्तन-पद्धति में भी इसी समष्टि-व्यष्टि रूपात्मक जगत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण के अनेक निदर्शन प्राप्त होते हैं जिससे विज्ञान एवं दर्शन के मध्य ऐक्य अथवा समन्वयता का चित्र प्रतिबिम्बित होता है । किन्तु उक्त उभयात्मक विधि की यथार्थता विचारणीय है ।
वर्तमान समय में आधुनिक विज्ञान अपनी चरम सीमा को प्राप्त करने में प्रयासरत है, क्योंकि अनेक प्रतिष्ठित भौतिकी-विज्ञानी, खगोलशास्त्री इस कार्य में संनिबद्ध हैं । अन्यतः, मुख्यतः भारतीय दर्शन में उस परम-कारण या परम-सत्ता या परम-शक्ति के विषय में अनेकशः उल्लेख दर्शन के ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । अतः यही समुचित समय है जहाँ उभय दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान के मध्य समानान्तरता का निरूपण कर संबंध स्थापित किया जा सकता है । इसी दृष्टि को ध्यान में रख कर अनेक दार्शनिक तथा खगोल-भौतिक-विज्ञानी इन दोनों क्षेत्र में सामञ्जस्य का वर्णन अपने-अपने लेखन में करते हैं । निम्नोक्त कतिपय दृष्टान्त द्रष्टव्य हैं-

ख्यातनामा भौतिकीविद् फ़्रिट्जॉफ़ काप्रा (Fritjof Capra) अपनी पुस्तक ‘The Tao of Physics’ में उल्लेख करते हैं कि परम-सत्ता शिव का नृत्य ही नर्तनशील जगत् है । ऊर्जा का अनवरोधित प्रवाह जो अनन्त रूप में गतिशील है, एक-दूसरे में परस्पर अन्तर्वेशित हो रहा है । शिव का नर्तन ही उप-पारमाणविक द्रव्य का नर्तन है । यह सर्जना और विनाश का निरन्तर नृत्य है जिसमें सम्पूर्ण जगत् समाविष्ट है ।
पुनश्च अन्तःशीर्षक में नाम संयोजित कर समान्तरता को अभिसूचित करते हुए लिखते हैं-
"An Exploration of the parallels between Modern Physics and Eastern Mysticism"

अद्वैत-वेदान्ती दार्शनिक स्वामी विवेकानन्द दर्शन और विज्ञान में समानान्तरता का कथन करते हुए कहते हैं - मन (Mind) और द्रव्य (Matter), दोनों में केवल आभासिक भेद है, वस्तुतः सत्ता एक ही है ।

सत्ता (Being) और द्रव्य (Matter) में कोई द्वन्द्व नहीं है, दोनों एक ही हैं । जैसे परमाणु अदृश्य, अचिन्त्य है; किन्तु उसमें समग्र संसार की मूलशक्ति तथा क्षमता अन्तर्निहित है, वैसा ही वेदान्ती ‘आत्मा’ के विषय में अभिधान करते हैं ।

पुनश्च समग्र विश्व में एकसत्तात्मकता का वर्णन कर सांख्यदर्शन की प्रकृति (Nature) को ही ईश्वर (God) के रूप में स्वीकार करते हैं ।

विशिष्ट पदार्थ-विज्ञानी फ़्रिट्जॉफ़ काप्रा के वैज्ञानिक अभिमतों का एवं अद्वैतवेदान्ती स्वामी विवेकानन्द के दार्शनिक अभिमतों का समीक्षण करते हुए ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र स्वकीय मन्तव्य प्रस्तुत करते हैं ।

इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से विज्ञान व दर्शन द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का पुनरीक्षण कर तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र का विश्लेषण तथा मूल्याङ्कन करना सर्वथा उपयोगी सिद्ध होगा; क्योंकि विज्ञान व दर्शन की अपेक्षा अध्यात्म सूक्ष्म, उच्चतर अनुभवसिद्ध स्तर है जिसको त्याग कर विज्ञान एवं दर्शन के सिद्धान्तों पर दृष्टि देना एकाङ्गी होगा । अतः अध्यात्म-दर्शन-विज्ञान तीनों उच्च कोटि के आयामों का समावेश कर उपर्युक्त तथ्यों पर विमर्श करने से सृष्टि-संबंधित रहस्यात्मक अन्वेषण को एक सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकेगा एवं एक निश्चित निष्कर्ष की भी प्राप्ति हो सकेगी ।

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सन्दर्भग्रन्थसूची :

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2. अविनाशी विश्व-नाटक, भाग-2, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान

3. श्लोकवार्त्तिक, कुमारिल भट्ट, पार्थसारथिमिश्र की ‘न्यायरत्नाकर’ व्याख्या सहित, संपा. रामशास्त्री तैलङ्ग, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी

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11. श्रीमद्भगवद्गीता, शांकरभाष्यसहित, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2000

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21. The New Encyclopaedia Britannica, Vol-10, Encyclopaedia Britannica Inc., Chicago, 1993, Rpt.

आध्यात्मिक ऊर्जा-स्रोत ईश्वर (परमात्मा):
ब्रह्माकुमारीज़ दृष्टिकोण


उपक्रम


जड़ भौतिक ऊर्जा एवं चैतन्य पराभौतिक ऊर्जा के परस्पर समन्वयन से इस जड़-चेतन-तत्त्वमय दृश्यमान जगत् की अवस्थिति परिलक्षित है । अतः उभय भौतिक तथा चैतन्य शक्ति के सम्यक् अधिगम एवं क्रियान्वयन से मानव-जीवन व वैश्विक स्थिति एक सुव्यवथित, महत् आयाम को प्राप्त कर सकती है । इसी दिशा में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के मुख्य प्रवक्ता ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा ने आध्यात्मिक अथवा ईश्वरीय ज्ञान के आधार से प्रसंगानुकूल विषय-वस्तु को वैज्ञानिक तथा दार्शनिक दृष्टिकोण से अनुशीलन कर एक अभिनव शैली से सारभूत तथ्य को प्रतिपादन करने का दृढ़ प्रयास किया है । ब्रह्माकुमारीज़ संस्थान में विज्ञान, दर्शन एवं अध्यात्म दिशात्रय द्वारा युक्तियुक्त समन्वयन कर मानवता को सर्वोच्च स्तर पर पहुँचाना, मुख्य उद्देश्य है । अतः इस आध्यात्मिक संस्थान द्वारा प्रदत्त दर्शन के तत्त्व-मीमांसीय क्षेत्र में ईश्वर (परमात्मा), आत्मा एवं द्रव्य (जगत्) विषयक सत्तात्रय का वैज्ञानिक व तर्कसम्मत रीति से विवेचन प्रस्तुत किया गया है ।

“परमात्मा” के अस्तित्व व स्वरूप की सत्यता और निश्चितता जितना विवादास्पद और रहस्यमय विषय बना हुआ है उतना कदाचित् ही अन्य कोई विषय मनुष्य-मात्र के समक्ष होगा । इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रत्येक दार्शनिक को परमात्मा के विषय में अपनी कुछ-न-कुछ सम्मति देना सदा ही आवश्यक रहा है, अन्यथा इसके बिना उसका दर्शन-विवेचन ही अपूर्ण रह जाता । सामान्य जन में जहाँ बहुसंख्यक लोग उस परमात्मा की प्रभुता और अस्तित्व में आस्था रखते हैं, वहाँ अल्पसंख्यक वर्ग भी है जिसे उसके अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए कोई विवेकसंगत आधार प्राप्त नहीं होता और अंधविश्वास की रीति में वह उसे स्वीकार करना नहीं चाहता है, जिन्हें नास्तिक कहा जाता है । अतः “परमात्मा” अथवा “ईश्वर” का सही विवेचन करना अत्यन्त उपयोगी है क्योंकि मनुष्य व सृष्टि के लिए उसकी कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है, उसके ज्ञान के बिना मनुष्य का जीवन निरर्थक हो जाता है ।

अन्य पक्ष में, विज्ञान सृष्टि में विद्यमान अतीन्द्रिय रहस्यमयी सत्ताओं का उद्घाटन पूर्णतया नहीं कर सकता क्योंकि मनुष्य अपने अस्तित्व में बंधायमान है । वह अपनी इन्द्रियों, उपकरणों, अपनी मस्तिष्क-सामग्री, अपनी प्रवणताओं, अपने व्यक्तित्व-वैशिष्ट्यों तथा प्रच्छन्न विगत स्मृतियों की परिसीमाओं से आबद्ध है । इसलिए एक उच्चतर तथा अनुभवातीत सत्ता की आवश्यकता है जो समस्त परिसीमाओं से परे हो ताकि मनुष्य के रहस्य का विस्फोट कर सके एवं वह सत्ता है स्वयं “ईश्वर” या “परमात्मा” । ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन उस परमशक्ति ईश्वर या परमात्मा के बारे में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए एक वौश्विक आधार प्रदान करने का प्रयत्न करता है, जिससे मानव उस सर्वोच्च सत्ता के साथ सम्बन्ध स्थापित कर अपनी आध्यात्मिक उन्नति साधित करने के साथ-साथ विश्व के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान प्रस्तुत कर सकता है । प्रस्तुत लेख में ईश्वर के यथार्थ, वास्तविक या सत्य स्वरूप सम्बन्धी विषय में ब्रह्माकुमारी दर्शन का मन्तव्य प्रकट किया जा रहा है ।

एक परम सत्य सत्ता, न कि कल्पना

परमात्मा के विषय में अज्ञान


ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र संसार में प्रचलित मनुष्यों के मतों को उपस्थापित करते हुए कहते हैं कि ईश्वर के सन्दर्भ में विवाद का विषय केवल उसका ‘नाम’ ही है । उस नाम से किस व्यक्ति या वस्तु का प्रतिबोधन होता है? उसका रूप, गुण, कर्तव्य और धाम क्या है? इन सबके विषय में मनुष्य पूर्णतया अज्ञान है, जैसे ‘छाया’ के पीछे विवाद चल रहा हो । भिन्न-भिन्न वर्ग उसका स्वरूप अपनी-अपनी कल्पना अथवा रुचि के अनुसार रचकर उसे “परमात्मा” की संज्ञा दे देते हैं । चूँकि यह स्वरूप रुचि व कल्पना पर आधारित है इसलिए एक कल्पित वस्तु-तुल्य हो गई है । दूसरे, चूँकि भिन्न-भिन्न वर्ग कल्पनायें करते आये हैं, अतः परमात्मा भी एक न होकर अनेक हो गये । नास्तिक मनुष्य इन कल्पनाओं में जाना नहीं चाहता और इसका स्पष्ट निषेध कर लेता है । मौलिक बात यही है कि परमात्मा को मानने वाला मनुष्य भी उसको नहीं जानता है । उसके सत्य परिचय से वह अनभिज्ञ है तथा स्वीकार कर कहता है ‘नेति-नेति’ । ईश्वर को बुद्धि के जानने से परे की वस्तु वह समझता है । परन्तु फिर यह भी उसने किस तरह से जाना कि ‘वह ईश्वर है?’ क्योंकि बुद्धि से सूक्ष्म अन्य कोई यन्त्र मनुष्य के पास नहीं है । ‘दिव्य-बुद्धि’ भी बुद्धि के अन्तर्गत ही आती है । इन परस्पर विपरीत बातों को कह मनुष्य ने जहाँ एक ओर अपनी अज्ञानता का परिचय दिया, वहीं दूसरी ओर वह सब त्याग-तपस्या, भक्ति-पूजा करते हुए भी परमात्मा के सम्बन्ध और संपर्क के वास्तविक लाभ से वंचित रहा है ।

पुनश्च समग्र जगत् में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न मतों का संग्रहण कर उल्लिखित करते हैं- ईश्वर जैसी किसी बाहरी शक्ति पर मनुष्य को आधारित न होना रूपी बौद्ध मत; समस्त ब्रह्माण्ड व सृष्टि में एक ही मूल तत्त्व ब्रह्म का अस्तित्व तथा अन्य तत्त्वों का मिथ्या या आभासिक ज्ञान रूपी अद्वैत मत (ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या); मान्यता रूप में ईश्वर या परमात्मा द्वारा सात दिनों के अन्दर समस्त जगत्, प्राणी, मनुष्य, सूर्य-चन्द्रादि का निर्माण सम्बन्धी ईसाई एवं मुस्लिम मत; पुनश्च वेदान्त दर्शन की जन्मभूमि भारतवर्ष में राम-कृष्णादि, मच्छ-कच्छ-वाराह-नागादि, सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी-नदी-वृक्षादि के रूप में अनेक भक्ति-मार्गीय ईश्वर-सम्बन्धी मतों के कारण वर्तमान समय में परमात्मा के अस्तित्व के विषय में विवाद के मुख्य तीन स्वरूप हैं-

1. यदि परमात्मा है तो क्या वह निजी व्यक्तित्व वाला है या कोई सार्वभौमिक शक्ति है?
2. यदि परमात्मा का अपना निश्चित व्यक्तित्व है तो जो भिन्न-भिन्न रूपों में उसकी पूजा होती रहती है उसे क्या संज्ञा दी जाये?
3. परमात्मा का वास्तविक कर्तव्य क्या है? क्या उसको वास्तविक रूप में जानने के पश्चात् उससे वास्तविक सम्बन्ध जोड़ने के बाद मनुष्य पुरुषार्थहीन हो सकता है या उसका पुरुषार्थ अपने कल्याण और लोक-कल्याण अर्थ और ही तीव्र हो जाता है?

अद्वैतवाद सम्बन्धी सर्वव्यापक ‘ब्रह्म’ मत का वैज्ञानिक आधार से खण्डन करते हुए ब्र.कु. जगदीश कहते हैं- शक्ति और पदार्थ दोनों एक-दूसरे में बदले जा सकते हैं । अतः यह कहना कठिन है कि सृष्टि के मूल में एक पदार्थ या शक्ति थी । केवल एक शक्ति से अनेक पदार्थों का निर्माण नहीं हो सकता क्योंकि यह बात निर्विवाद है भिन्न-भिन्न पदार्थों से भिन्न-भिन्न प्रकार की ‘शक्ति’ प्राप्त होती है । आज तक संसार में एक भी दृष्टान्त नहीं है कि बिना किसी दूसरी वस्तु की सहायता के किसी एक वस्तु से अनेक वस्तुयें निर्मित हुई हों । अतः यह मानना असंगत है कि मूल में केवल एक ‘ब्रह्म’ रूप शक्ति है । अध्यात्मवादी राजयोगी जगदीश त्रुटि की ओर इंगित करते हुए कथन करते हैं कि कदाचित् यह मूल ‘शक्ति’ शब्द के कारण ही त्रुटि हुई है । सारे विश्व के कण-कण में ‘शक्ति’ व्याप्त है, किन्तु मूल रूप में भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्ति है- यह बात भुला दी गई । इसी प्रकार की भूल ‘आत्मा’ शब्द के साथ हुई है । यह सत्य है कि सर्व प्राणियों में आत्मा है, किन्तु यह सत्य नहीं है कि सर्व आत्माओं के गुण एवं कर्तव्य मूल रूप में एक जैसे हैं । मूल शक्ति के विषय में यह बात इसलिए स्वीकरणीय है कि कम-से-कम दो प्रकार की अवश्य ही होगी, अन्यथा दो के बिना अनेकता का दृष्टिगोचर होना असंभव है ।
अतः मूल में दो तत्त्व प्रत्यक्ष होते हैं । 1. जड़ प्रकृति अपने भिन्न रूपों में, 2. चैतन्य । चैतन्य के भी दो रूप दिखाई देते हैं- 1. जीवन शक्ति एवं 2. ज्ञान शक्ति ।

जीवन शक्ति एवं ज्ञान शक्ति

यदि भिन्न-भिन्न रूपों की जड़ प्रकृति में प्रवाहित होने वाली जीवन शक्ति एक ही है जो ही सर्व वस्तुओं को गति प्रदान करती है जिससे प्रत्येक वस्तु अपनी शक्ति अनुसार गति अथवा चेतनता ग्रहण करती है एवं यह जीवन शक्ति ही वह सर्वव्यापक ‘ब्रह्म’ है जो सर्व वस्तुओं को गति प्रदान करते हुए भी स्वयं निर्लिप्त है । तब प्रश्न होगा कि क्या परमात्मा केवल चैतन्य है और क्या वह केवल चेतनता ही प्रदान करता है? क्या मनुष्य चेतनता पाने के लिए परमात्मा को याद करते हैं? परमात्मा का ऐसा स्वरूप स्वीकार करना विवेकसंगत नहीं है । ईश्वर या परमात्मा स्वयं निःसन्देह चैतन्य है परन्तु उसे सारी सृष्टि की चेतनता का सामूहिक स्वरूप मानने का कोई आधार नहीं है ।

पुनश्च ज्ञान-शक्ति के सन्दर्भ में विवेचन प्रस्तुत करने के लिये ब्र.कु. जगदीश मन्तव्य देते हैं कि प्रत्येक जीव-प्राणी का ज्ञान-भण्डार भिन्न-भिन्न है । इस भिन्नता का एकमात्र कारण यही है कि प्रत्येक जीव प्राणी अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार सामूहिक ज्ञान भण्डार (ईश्वर) से अपने लिए ज्ञान ग्रहण करता है । जो जितना ग्रहण कर पाता है वह उतना उच्च श्रेणी का जीव प्राणी माना जाता है और जो जितना कम वह उतना निम्न श्रेणी का है । इस अवस्था में सामूहिक ज्ञान भण्डार वैसे ही निर्लिप है जैसे सूर्य का प्रकाश । सूर्य सभी को समान रूप में प्रकाश प्रदान करता है परन्तु प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति उस प्रकाश को भिन्न-भिन्न मात्रा में अपनी शक्ति-सुविधा-परिस्थिति के अनुसार ग्रहण करता है । परन्तु यदि सृष्टि का कार्य केवल इस प्रकार ही गतिशील होता कि हर वस्तु और हर प्राणी जड़ प्रकृति से, सामूहिक जीवन शक्ति से व सामूहिक ज्ञान शक्ति से पूर्णतया स्वतन्त्र रूप से अपने व्यक्तित्व तक सीमित कार्य करता रहता हो तो कदाचित् परब्रह्म परमेश्वर को ‘सामूहिक जीवन शक्ति’ व ‘सामूहिक ज्ञान शक्ति’ स्वीकार किया जाता । परन्तु ऐसे परमात्मा की विशेष अनुकम्पा प्राप्त करने के पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं है । कदाचित् इसी कारण बौद्ध मत और संन्यास मत ‘व्यक्तिवादी अध्यात्म’ का प्रतिपादन करता है ।

अध्यात्मवादी ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र व्यावहारिक ज्ञान को संयोजित करते हुए उल्लेख करते हैं कि प्रत्येक प्राणी के पास जो भी ज्ञान शक्ति तत्त्व अर्जित है या जो भी और ज्ञान वह अपने निजी प्रामाणिक सामूहिक ज्ञान कोष से लेता है, उसके अतिरिक्त मनुष्य प्राणियों का आपस में भी ज्ञान का आदान-प्रदान होता रहता है और उससे मनुष्य के व्यक्तिगत संस्कारों में परिवर्तन होते रहते हैं । हम आपस में एक-दूसरे से भी बहुत कुछ सीखते और समझते हैं जिसका प्रभाव हमारे विचार और व्यवहार पर पड़ता है । विशेष रूप से अशक्त एवं मन्द-बुद्धि प्राणी को बुद्धिमान प्राणी से बुद्धि प्राप्त होती है । जब बुद्धि का आदान-प्रदान इस प्रकार मानवों के बीच हो सकता है और होता है तो इस बात को समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि यह आदान-प्रदान मानव और अति मानव के मध्य भी हो सकता है जिस अति-मानव को “परमात्मा” की संज्ञा दी जाती है । परमात्मा का यही वास्तविक स्वरूप है जिस स्वरूप में मनुष्य ‘परमात्मा’ को एक निजी व्यक्तित्व रूप में समझता है । इसलिए साधना पर ध्यान आकर्षित करने वाला योगदर्शन भी ईश्वर को पुरुषविशेष के रूप में तथा न्याय-वैशेषिक दर्शन सर्वज्ञत्व-युक्त एक भिन्न सत्ता के रूप में स्वीकार करते हैं क्योंकि ईश्वर की भक्ति कर मनुष्य अपनी कामनाओं की पूर्ति करता है जो एक सर्वविदित व्यावहारिकता है ।

अतः पूर्वोक्त स्वरूप में विद्यमान ‘ज्ञानकोष-बिन्दु’ ईश्वर की सत्ता को सार्वभौमिक रीति से स्थापित या सिद्ध करने के लिए ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन पाँच मुख्य बिन्दुओं जो कसौटी का कार्य संपन्न करते हैं, पर विशेष बल प्रदान कर विवेचन प्रस्तुत करता है-

1. सर्वधर्ममान्य (हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आदि समस्त धर्मों द्वारा स्वीकृत)
2. सर्वोच्च शक्ति (सर्व का परम पिता-शिक्षक-सद्गुरु, मुक्ति-जीवन्मुक्ति दाता)
3. सर्वोपरि (जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, देह व देह के सम्बन्धों आदि चक्रों से परे)
4. सर्वज्ञ (सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त का ज्ञाता, त्रिकालदर्शी, त्रिलोकीनाथ, त्रिनेत्री, त्रिमूर्त्ति)
5. सर्व गुणों में अनन्त (ज्ञान-दिव्यगुण-शक्तियों का अनन्त अविनाशी स्रोत, सर्वशक्तिमान)

इन पांचों बातों से संपुष्ट ईश्वर-सम्बन्धी मत ही सार्वभौमिक रीति से ग्रहणीय हो सकता है, अन्यथा नहीं । निष्कर्षतया उस परमसत्य के बारे में यह तथ्य उद्भूत होता है कि वह एक निराकार ज्योतिर्मय चैतन्य सर्वोच्च शक्ति है (जिसे परमात्मा, भगवान, अल्लाह, खुदा, नूर, जेहोवा, GOD, अखण्ड ज्योति, सद्गुरु आदि नामों से अभिहित किया है) । भारतवर्ष में उस परमशक्ति की अण्डाकृति शिवलिंग के रूप में पूजा-आराधना होती है तथा भारतवर्ष से बाहर निराकार (वेदेही) ज्योति पुंज के रूप में अथवा एक अण्डाकृति पत्थर के रूप में उसका ध्यान किया जाता है । उपर्युक्त समस्त तथ्यों को सम्मिलित रूप में प्रस्तुत करते हुए ब्रह्माकुमारी दर्शन का स्वमत निम्नोक्त प्रदर्शित है-

i. स्वरूप, नाम, गुण एवं अवस्थान

आध्यात्मिक ऊर्जा का परम स्रोत “ईश्वर” या “परमात्मा”, चैतन्य शक्ति आत्मा (ज्योतिर्मय बिन्दुस्वरूप) के समान ही प्रकाश का एक अनन्त सूक्ष्म बिन्दु है, किन्तु वह अन्तर्विवेकशील सर्वोच्च सत्ता है । ब्रह्माकुमारी दर्शन में परमात्मा के लिए ‘शिव’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जो समस्त आत्माओं का अविनाशी पिता है । ‘शिव’ का अर्थ है बिन्दु (रूप), बीज (मात्रा) एवं कल्याणकारी (वृत्ति) । अतः ईश्वर को ‘सदाशिव’ भी कहा जाता है अर्थात् शाश्वत कल्याणकारी सत्ता । उसमें ज्ञान, गुण व शक्ति अनन्त रूप में विद्यमान हैं । अभौतिक प्रकाशस्वरूप परमात्मा सप्त गुणों ज्ञान-पवित्रता-सुख-शान्ति-प्रेम-आनन्द-शक्ति से परिपूर्ण है जो सूर्य के सप्तरंगी प्रकाश-सम हैं, किन्तु केवल मानस-दर्शनीय है । सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप ईश्वर एक एवं अद्वितीय है । वह परम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ या सर्वोत्कृष्ट आत्मा है जो अपने अपार प्रज्ञान से संपूर्ण सत्य को जानता है । वह सर्वशक्तिमान तथा सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान भी है । परमात्मा अशरीरी (न स्थूल शरीर और न ही सूक्ष्म शरीर), शाश्वत व अनश्वर है । ईश्वर सदैव स्व के प्रति जागरूक रहता है अर्थात् सर्वदा चैतन्यमय स्थिति में विद्यमान रहता है ।

भौतिक जगत् से ऊर्ध्व प्रकाशमय निराकारी क्षेत्र में उसका अवस्थान है जिसे ‘ब्रह्मलोक’ अथवा ‘परमधाम’ कहा जाता है । इस परमधाम या मुक्तिधाम के बारे में प्रायतः कहीं भी शास्त्रों या ग्रन्थों में समुचित प्रकाश नहीं डाला गया है । किन्तु अध्यात्मनिष्ठ ब्रह्माकुमारीज की अनुभवसिद्ध दृढ़ मान्यता है इस धाम या जगत् का अनेक बार दिव्य दर्शन किया गया है और किया जा रहा है । अतः इस दर्शन के अनुसार यह जगत् या क्षेत्र पदार्थों एवं विचारों की सीमा से परे एक समय रहित, स्थान रहित तथा माप रहित स्थल है जहाँ सर्वत्र शान्ति व्याप्त है । यह जगत् पंचतत्त्वों से भी पृथक् छठा “ब्रह्म” नामक तत्त्व से निर्मित है । इसलिए परमधाम को “ब्रह्माण्ड”, “ब्रह्मलोक” आदि नामों से भी अभिहित किया जाता है । सर्वोच्च तथा सर्वाधिक पवित्र क्षेत्र ब्रह्म तत्त्व में निवास कर परम-पवित्र परमात्मा सूर्य के समान अपनी कल्याणकारी ज्ञान-गुण-शक्तिमयी किरणें पृथिवीवासियों के ऊपर निरन्तर विकिरण करता रहता है ।

ii. एकमात्र अपरिवर्तनशील सत्ता

संसार के समस्त पदार्थ (प्रकृति-द्रव्य) समय व गति के नियम के अनुसार परिवर्तनशील होते रहते हैं । पुनश्च समस्त शरीरधारी आत्मायें भी जन्म-मरण के चक्र में आने से उनमें गुण, शक्तियों का ह्रास अथवा परिवर्तन होता जाता है । किन्तु ‘ईश्वर’ ही एकमात्र ऐसी सत्ता है जिसमें कदापि कोई परिवर्तन (न ज्ञान में, न गुणों में और न ही शक्तियों में) संघटित नहीं होता है । वह कभी भी पतनोन्मुख नहीं होता और न ही उसमें किसी प्रकार का कोई उत्थान होता है । अतः वह अपने मूल स्वभाव में सदा शाश्वत रहता है । इसलिए वह सर्वदा पवित्र व सत्यस्वरूप ही है ।

निराकार ज्योतिर्बिन्दु-स्वरूप परमात्मा, आत्माओं की तरह शरीर धारण नहीं करता अर्थात् जन्म नहीं लेता बल्कि संसार के एक विशेष समय (कल्याणकारी पुरुषोत्तम संगम युग जो कलियुग की अन्तिमावस्था तथा सत्ययुग की आदि अवस्था है) में उसका दिव्य अवतरण (दिव्य जन्म) होता है । अतः वह सदा कर्मबंधन व कर्मफल से विमुक्त है । अतः ईश्वर, एक आत्मा होते हुए भी कदापि पदार्थ के बंधन में नहीं आने के कारण एवं सर्वदा जन्म-मृत्यु के चक्र से अतीत होने के कारण, उसको एक भिन्न सत्ता के रूप में परिगणित किया जाता है ।

iii. त्रिकालदर्शी, द्रव्यमानरहित एवं अनन्त-ऊर्जासंपन्न

ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार सर्वशक्तिमान परमात्मा, मनुष्य-सृष्टि-रूपी वृक्ष का अविनाशी बीज-स्वरूप है जिसमें समग्र सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त का ज्ञान सन्निहित है, जिसका उल्लेख गीता में भी किया गया है ।

ब्र.कु. जगदीश आधुनिक विज्ञान के प्रकाश में इस तथ्य को प्रकट करते हैं कि कैसे ईश्वर सर्वज्ञ अथवा त्रिकालदर्शी है? विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने प्रतिपादित किया है यदि कोई प्रकाश की गति से भी अधिक तीव्र जा सकता है तो वह काल के तीनों पहलुओं (भूत, वर्तमान और भविष्य) को जान सकता है । किन्तु उसका अधिभौतिक दर्पण अर्थात् मन स्वच्छ या उसकी प्रज्ञा दैवीकृत होनी चाहिए तथा उसको अधि-भौतिक कर्षण अर्थात् अन्यों के प्रति आसक्ति से पूर्णतः मुक्त होना चाहिए । अतः ब्रह्माकुमारीज यह बात स्पष्ट करता है कि ईश्वर, जिसमें लेश मात्र भी मानसिक आसक्तियाँ या अशुद्धतायें नहीं हैं और जो अपनी ‘ईश्वरीय अनन्त गति’ से यात्रा कर सकता है, तीनों कालों को जानता है । अन्तर्विवेकशील दिव्य प्रकाश बिन्दु ईश्वर के चारों ओर एक दिव्य आभामण्डल होता है अर्थात् वह अपने वलयाकार रूप में संसीमित है । आत्माओं की तरह यह परम आत्मा भी द्रव्यमानरहित अनन्त-उर्जासंपन्न अत्यन्त सूक्ष्म चेतन सत्ता है जिसको केवल सूक्ष्म-दृष्टि द्वारा देखा जा सकता है या अनुभव किया जा सकता है ।

iv. भौतिक सृष्टि में दिव्य अवतरण एवं अद्वितीय भूमिका

मनुष्य आत्माओं को परमात्मा का दिया हुआ एक अनुपम उपहार है नकारात्मकता की पहचान करने की शक्ति । जब जगत् की समस्त मनुष्यात्मायें संसार-चक्र में संसरण कर दुःखी, अशान्त तथा पतित हो जाती हैं तब उनके तथा समग्र सृष्टि के कल्याणार्थ वह स्वयं स्वधाम ब्रह्म जगत् से इस स्थूल भौतिक जगत् में एक मानवीय (प्रजापिता ब्रह्मा के) तन में परकाया प्रवेश कर ईश्वरीय सत्य ज्ञान व राजयोग के माध्यम से आत्माओं का दिव्यीकरण कराके सत्त्वप्रधान सुव्यवस्थित दैवी-सृष्टि की पुनर्स्थापना करता है । जिससे आत्मा-रूपी सन्तानों को सुख-शान्ति-समृद्धि का अधिकार प्राप्त हो जाता है । इस कथन का उल्लेख सर्वशास्त्र शिरोमणि गीता में भी किया गया है ।

ईश्वर द्वारा संसार या सृष्टि परिवर्तन रूपी कर्तव्य की बात को स्पष्ट करने के लिए वैज्ञानिक आधार से संपुष्ट करते हुए ब्र.कु. जगदीश मत व्यक्त करते हैं - तापगतिकी के नियमानुसार उपलब्ध ऊर्जा में हानि (एन्ट्रॉपी) के कारण विश्व क्षय की अवस्था की ओर गतिशील होता है । पुनश्च द्रव्य पर मन का सूक्ष्म प्रभाव पड़ने के कारण प्रकृति भी अपनी मूल ऊर्जा से विहीन हो जाती है । अपक्षय की इस अवस्था में अर्थात् जब उभय आध्यात्मिक व भौतिक ऊर्जा में गिरावट आने से अधिकतम एन्ट्रॉपी की अवस्था पहुँच जाती है तब आध्यात्मिक ऊर्जा का उच्चतम बिन्दु स्रोत “परमात्मा” इस भौतिक जगत् में हस्तक्षेप करता है । वह ईश्वरीय ज्ञान तथा राजयोग के माध्यम से आध्यात्मिक एन्ट्रॉपी को उत्क्रमित कर देता है और अन्यपक्षतः परमाणु अस्त्रशस्त्र के विखण्डन, प्राकृतिक आपदाओं आदि के जरिए भौतिक एन्ट्रॉपी उत्क्रमित हो जाती है । फलस्वरूपतः पृथ्वी, जल तथा वायु एवं उनके उत्पादों को अधिकतम ऊर्जा-संकेन्द्रण प्राप्त होता है ता सत्त्वप्रधान स्थिति प्राप्त होती है । जिससे एक पूर्ण व्यवस्थित व सन्तुलित जगत् की स्थापना हो जाती है, जिसमें भौतिक वस्तुओं में अधिकतम ऊर्जा-संकेन्द्रण तथा आत्माओं के पास भी अधिकतम उपलब्ध नैतिक व आध्यात्मिक ऊर्जा रहती है । नैतिक पुनरुत्थान या आध्यात्मिक नवीनीकरण द्वारा ही भौतिक विश्व में परिवर्तन होने से प्रकृति में पुनः ऊर्जा आती है एवं सृष्टिचक्र फिर से प्रारंभ होता है । स्थूल जगत् शाश्वत है, ईश्वर केवल इसका रूपान्तरण या जीर्णोद्धार करता है । अतः इसी अर्थ में ईश्वर नूतन जगत् का रचयिता या विश्व का रचयिता या सृष्टिकर्ता है ।

v. नियम-प्रदाता, न कि नियम-निर्माता

अनेक दार्शनिक तथा शास्त्रीय भौतिकीविद् ईश्वर को जगत् में विद्यमान समस्त प्राकृतिक नियमों का निर्माता सम्बन्धी मत का पोषण कर उसके समर्थन में विभिन्न युक्तियाँ प्रदान करते आये हैं । किन्तु ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र स्पष्टतया उन सभी की समीक्षा कर कथन करते हैं कि भौतिक वस्तुओं या पदार्थों या शक्तियों में स्वयं के गुण अन्तर्निहित होते हैं । पूर्णतया विज्ञानाधारित युक्तियुक्त मत का उल्लेख कर वो वर्णन करते हैं कि संसार में विद्यमान किसी भी वस्तु में निश्चित अन्तर्निहित, स्वाभाविक या तात्त्विक गुण होते हैं । प्रत्येक तत्त्व का अपना स्वयं का स्वभाव होता है । उदाहरणार्थ- हाइड्रोजन में दहनशील होने का गुण या स्वभाव होता है । उसकी परमाणवीय संरचना ऐसी है तथा उसका अन्तर्निहित स्वरूप ऐसा है कि वह जल सकती है । इसलिए वह एक विशिष्ट ढंग से व्यवहार करती है, इसलिए नहीं कि ईश्वर ने उसे ऐसा व्यवहार करने का आदेश दिया है बल्कि अपनी भौतिक संरचना के कारण । हाइड्रोजन गैस के गठन व संरचना के अनुरूप उसका विशिष्ट व्यवहार होता है । उसी प्रकार हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के पारस्परिक संयोग से जल का निर्माण होता है । यह ईश्वर का चमत्कार नहीं है और न ही उसके आदेश से ऐसा होता है । इन गैसों की आणविक शक्ति ऐसी है कि वे इस अनुपात में संयुक्त होती हैं और जब दो गैसें उस अनुपात में संयुक्त होती हैं तब जल के निर्माण के एलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होता जो एक द्रव्य है । द्रव्य के तत्त्वों तथा भौतिक वस्तुओं में स्थित अपने-अपने अन्तर्निहित भौतिक तथा रासायनिक गुणों के कारण यह सब कुछ संघटित होता है । अतः ईश्वर कोई भौतिक नियम निर्माता नहीं है ।

किन्तु अन्य एक विशेष अर्थ में ईश्वर नियम-निर्माता है । जब विश्व में नैतिक मूल्यों का ह्रास और मानवीय व्यवहार में नीति-परायणता की नितान्त हानि होती है तब वह मानव-जाति को नीति-परायणतापूर्ण कर्मों के नियम देता है, जिसके पालन से मनुष्य को तथा दूसरों को शान्ति मिलती है । वह अध्यादेश या आदेश जारी करता है जिससे मानव-जाति जानती है कि यदि मनुष्य नैतिक तथा आध्यामिक नियमों का उल्लंघन करती है तो उन्हें दुःख उठाना पड़ेगा । इस विशेष सन्दर्भ में ईश्वर नियम-प्रदाता है । किन्तु नियमों का पालन करना अथवा न करना, मनुष्य की इच्छा या पसन्द पर निर्भर है । ईश्वर मनुष्य को एक विशिष्ट ढंग से व्यवहार करने के लिए बाध्य नहीं करता, किन्तु जो नियम वह समझाता है कोई भी मनुष्यात्मा दे नहीं सकती । वे नियम मनुष्य के मूल स्वभाव के अनुसार ही होते हैं तथा यह स्वाभाविक है कि यदि मनुष्य उनका पालन नहीं करता तो दुःख प्राप्त करता है । पुनश्च ईश्वर द्वारा दिये गये नियम स्वयं ईश्वर के द्वारा नहीं बनाये जाते, बल्कि वह मनुष्यों को केवल उनकी जानकारी देता है और बताता है कि ये उनका आध्यात्मिक स्वरूप है । त्रिकालदर्शी ईश्वर के सिवाए कोई अन्य व्यक्ति नहीं है जो मनुष्य को इन नियमों का ज्ञान कराये और न कोई अन्य व्यक्ति अपने स्वयः के व्यावहारिक कार्यों से इन नियमों का निदर्शन कर सकता है । ज्ञानमय कल्याणकारी ईश्वर अपने आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा समग्र विश्व की आध्यात्मिक पुनर्रचना करता है ।

उपसंहार

इसी प्रकार सर्वोच्च सत्ता ‘ईश्वर’ अथवा ‘परमात्मा’ के विषय में एक अभिनव शैली में, किन्तु विज्ञानसम्मत तथ्य प्रदान कर समस्त मानव-जगत् को इस सत्य ज्ञान से अवगत कराने का महान प्रयास अभिनव ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन में किया गया है । इस दर्शन के अन्तर्गत विषयों के अवलोकन से यह प्रतीत होता है समग्र धर्म व दार्शनिक शाखाओं की विषयवस्तु का सार तत्त्व इसमें समाहित है, परन्तु यह इस अध्यात्म-दर्शन की विशेषता है कि इसमें किसी भी दार्शनिक शाखा का विषय ग्रहण नहीं किया गया है बल्कि यह दिव्य रहस्योत्घाटन से ज्ञात होता है, जो इसकी मौलिक मान्यता है । किन्तु विषयवस्तु को सुदृढ़ तथा सर्वस्वीकृत कराने के उद्देश्य से ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र तथा अन्य अध्यात्म-विज्ञानी ब्रह्माकुमार व ब्रह्माकुमारियों ने अनेक आध्यात्मिक, दार्शनिक या धार्मिक शास्त्रों के मतों को संयोजित किया है जिससे एक सार्वभौमिक तथ्य का स्पष्ट रीति से अवज्ञान हो सके अथवा निष्कर्ष रूप में एक तथ्य सुस्थापित हो सके । अतः किसी भी तात्त्विक विषय के कथन को दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक दृष्टि का पुट देते हुए उसका यथार्थतया प्रतिपादन करने में ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन अथवा अध्यात्म-विज्ञान एक योग्य सैद्धान्तिक प्रमाण प्रस्तुत करता है ।


संदर्भग्रन्थसूची

1. प्रकृति, पुरुष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण
2. अविनाशी विश्व-नाटक, भाग-2, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान
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12. राजयोग शिविर प्रवचनमाला, ब्रह्माकुमारी ऊषा, ब्रह्माकुमारीज ऑडियो विजुअल, शान्तिवन, आबू रोड, राजस्थान