A Godly student of Brahmakumaris Spiritual University & A pass-out Researcher from Jawaharlal Nehru University... Deeply involved in Spiritual aspects of life through practising Rajyoga Meditation of Brahmakumaris... Doing research in scientific as well as philosophical milieu to explore new & interesting dimensions towards indicating that Ultimate Reality.
Friday, March 15, 2013
आध्यात्मिक ऊर्जा (आत्मा) की आन्तरिक संरचना
(ब्रह्माकुमारीज़ सूक्ष्म-दृष्टिकोण)
संसार में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का परिप्रकाश निरन्तर होता रहा है । मनुष्य अपने बुद्धि-कौशल का यथासंभव उपयोग कर तथ्य प्रदान करने में दक्षता हासिल की है । परन्तु स्वयं का यथार्थ परिचय क्या है? इस विषय में वह पर्याप्त रूप से सहमत नहीं है । विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ मानव स्वयं से जोड़ने का तरीका शायद भूल बैठा है जिसके कारण उसको नाना प्रकार की परेशानियों को झेलना पड़ रहा है । आज के आधुनिक विज्ञान ने पदार्थ की सूक्ष्मतम स्थिति को जानने में बहुत प्रयास किया है तथा सफलता भी प्राप्त की है । परन्तु इन सब अनुसंधानों के पीछे कार्य करने वाली वो चैतन्य शक्ति कौन है? उसका स्वरूप क्या है? वो कैसे कार्य करती है?... आदि विषयों के ऊपर शायद ही किसी प्रकार का जानने का प्रयत्न किया जा रहा है ।
इस सन्दर्भ पर प्रकाश डालने हेतु प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय अपने आध्यात्मिक विज्ञान के द्वारा स्वकीय अभिमत प्रकट करता है । इस संस्थान के मुख्य प्रवक्ता, बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व, अध्यात्मवादी राजयोगी ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा ने तथा अन्य अध्यात्म-विज्ञानी ब्रह्माकुमार व ब्रह्माकुमारियों ने भी स्व-स्व कृतियों व व्याख्यानों के माध्यम से वैज्ञानिक चिन्तनधारा को समन्वित कर अभौतिक ऊर्जा ‘आत्मा’ के संरचनात्मक पहलू पर मन्तव्य उपस्थापित किया है, जिसका एक संक्षिप्त अनुशीलन इस शोधलेख के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है ।
स्वरूप
ब्रह्माकुमारी आध्यात्मिक दर्शन प्रतिपादित करता है कि ‘आत्मा’ एक अभौतिक सत्ता है जो अन्तर्विवेकशील प्रकाश का एक अनन्त सूक्ष्म बिन्दु है । बिन्दु का कोई भी आयाम नहीं होने के कारण ‘आत्मा’ बिन्दु का रूप निराकार ही है । निराकारी ज्योतिर्बिन्दु-स्वरूप आत्मा में मुख्यतः ज्ञान, पवित्रता, सुख, शान्ति, प्रेम, आनन्द व शक्ति - सात गुण विद्यमान होते हैं । अतः सप्तगुणसंपन्न आत्मा स्वभावतः सत्त्वगुणप्रधान, शुद्ध व पवित्र होती है । आध्यात्मिक ऊर्जा ‘आत्मा’ के ये प्रमुख सात गुण सप्त-रंगात्मक होते हैं जो अपने स्वरूप में अभौतिक हैं एवं इनको केवल अन्तर्दृष्टि से मानसपटल पर ही देखा जा सकता है । जैसे सूर्य का प्रकाश सप्त-वर्णात्मक (VIBGYOR) होता है जो अपने स्वरूप में भौतिक है एवं इन्हें स्थूल नेत्रों के द्वारा देखा जा सकता है । अर्थात् भौतिक सात रंग क्रमशः अभौतिक सात गुणों से तुलनीय हैं ।
1. बैंगनी (Violet) - आनन्द (Bliss)
2. गाढ़ा नीला (Indigo) - ज्ञान (Knowledge)
3. नीला (Blue) - शान्ति (Peace)
4. हरा (Green) - प्रेम (Love)
5. पीला (Yellow) - सुख (Happiness)
6. नारंगी (Orange) - पवित्रता (Purity)
7. लाल (Red) - शक्ति (Power)
यह तथ्य ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान में एक अनन्य व अद्वितीय अन्वेषण है । अतः सप्तवर्णी सप्त गुणों का सामूहिक रूप श्वेत-वर्णात्मक (White-coloured) ही आध्यात्मिक प्रकाश-बिन्दु ‘आत्मा’ है ।
सूक्ष्म शक्तित्रय : मन, बुद्धि व संस्कार
ब्रह्माकुमारी दर्शन के मतानुसार चैतन्य प्रकाशमय ज्योतिर्बिन्दुस्वरूप आत्मा की तीन मुख्य सूक्ष्म शक्तियाँ हैं- मन, बुद्धि एवं संस्कार जिससे चेतना का प्रकटीकरण संभव होता है । ‘चेतना’ आत्मा का अन्तर्निहित गुण या विशेषता है जो शरीर से पूर्णतया भिन्न है । यह चेतना मस्तिष्क से भी पृथक् सत्ता है । आत्मा ‘चेतना’ के माध्यम से ही कार्य करती है, किन्तु मस्तिष्क उस चेतना को परिसीमित कर देता है । मस्तिष्क आत्मा को केवल त्रि-आयामीय वस्तुओं का अनुभव करने योग्य बना देता है, परन्तु शरीर के बहिर्भूत आत्मा अपनी चेतना-शक्ति के द्वारा सुन सकती है, सोच सकती है तथा बहु-आयामीय अनुभव अथवा अतीन्द्रिय दर्शन भी कर सकती है । अतः विचार, प्रत्यक्षण, भावना, संकल्प, स्मृति आदि अमस्तिष्कीय कार्य हैं एवं इनका सम्बन्ध केवल अन्तर्विवेकशील सत्ता आत्मा से ही है । आत्मा अपने साथ अपने विचारों, अपनी भावनाओं तथा अपने कार्यों के संस्कार ले जाती है जो सुषुप्त हो सकते हैं अथवा अभिव्यक्त हो सकते हैं ।
ब्र.कु. जगदीश चन्द्र मन-बुद्धि आदि आत्म-सम्बन्धी मन्तव्य का स्पष्ट रीति से वर्णन करने के लिए अभिधान करते हैं-
1. ‘मन’ तथा ‘बुद्धि’ स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ/प्रकृति के उत्पाद या विकसन नहीं है । वे शरीर-तन्त्र से जिनमें मस्तिष्क तथा उसके कार्य सम्मिलित हैं, भिन्न हैं ।
2. मन और बुद्धि या प्रज्ञा - सोचने, कल्पना करने, समझने, निर्णय करने, अनुभव करने आदि योग्यताओं तथा क्रियाओं के नाम हैं जो ‘आत्मा’ से सम्बन्धित हैं ।
3. आत्मा द्वारा किये गये कर्मों के अनुरूप आत्मा के संस्कारों का निर्माण होता है । जब बिन्दुरूप आत्मा एक शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण करती है तब संस्कार उसके साथ चले जाते हैं । जीनों (Genes) में केवल शरीर की वृद्धि व विकास की तथा व्यक्तित्व (आनुवंशिक लक्षण) की रूपरेखा कूटबद्ध रूप में होती है; किन्तु कोई व्यक्ति किस प्रकार के और किस गुण वाले जीन विरासत में पायेगा, यह बात आत्मा के कार्यों तथा परिणामी लक्षणों तथा प्रवृत्तियों द्वारा अर्थात् उसके पूर्वजन्मों में निर्मित संस्कार द्वारा निश्चित होती है ।
पुनश्च संवेगात्मक तथा मनोवैज्ञानिक संस्कार आत्मा से ही संबंधित होते हैं, न कि शरीर से । किन्तु कोशिकायें (Brain Cells), कतिपय ग्रन्थियाँ (Glands) तथा तन्त्रिकायें (Nerves) आत्मा के संवेगों के कारण प्रभावित हो जाती हैं और वे आत्मा के संवेगों की अभिव्यक्ति को प्रभावित करती हैं । अतः दो शाश्वत सत्तायें हैं- पदार्थ तथा आत्मा (‘मन’ आत्मा की एक शक्ति मात्र है) । पदार्थ या प्रकृति अपनी सेवायें आत्मा अर्थात् पुरुष को देती हैं क्योंकि विश्व के समस्त उपकरण किसी अन्तर्विवेकशील उपयोगकर्ता के लिए अभिप्रेत होते हैं । पुनश्च पदार्थ भविष्य को देखने या उसके लिए आयोजित करने में सक्षम नहीं होता और न ही वह अतीत पर चिन्तन करने में सक्षम होता है । क्योंकि उसमें सोचने और किसी क्रिया से परम शुभ को निस्सारित करने की योग्यता नहीं होती और न वह प्रभावों को महसूस कर सकता है । ‘मन’ तथा ‘प्रज्ञा’ कोई सूक्ष्म, आन्तरिक, भौतिक अंग नहीं हैं, बल्कि आत्मा की शक्तियों के विभिन्न नाम हैं । निम्नोक्त दृष्टान्त के माध्यम से ब्र.कु. जगदीश चन्द्र ने आत्मा की त्रिविध शक्तियों या योग्यताओं एक स्पष्ट चित्रण प्रस्तुत किया है-
उदाहरण : ‘विद्युत्’ एक प्रकार की ऊर्जा है । जब उसका उपयोग रसोई घर में कोई खाद्य पदार्थ पकाने या गर्म करने के लिए किया जाता है तो इस विद्युत् को ‘ऊष्मा’ कहा जाता है । जब विद्युत् का उपयोग रेफ्रिजरेटर में किया जाता है तब वह ‘शीतलता’ प्रदान करती है तथा बल्ब के माध्यम से ‘प्रकाश’ देती है । उपयुक्त समस्त सन्दर्भों में वही विद्युत् है, परन्तु उसका उपयोग विभिन्न प्रकार से तथा विभिन्न कार्यों के लिये किया जाता है जिसके कारण उसे शक्ति, प्रकाश, शीतलता, ऊष्मा आदि भिन्न-भिन्न संज्ञा दी जाती है ।
उसी प्रकार जब आध्यात्मिक ऊर्जा अथवा चेतना की शक्ति जो ‘आत्मा’ है, स्वयं को इच्छा, संकल्प, अभिलाषा, ध्यान, भावना या विचार के रूप में अभिव्यक्त करती है तो कहा जाता है कि हमारा ‘मन’ कार्य कर रहा है । जब वह स्वयं को समझ, तर्कना या निर्णय के रूप में अभिव्यक्त करती है तब हम कहते हैं कि हमारी ‘बुद्धि’ कार्य कर रही है और जब वह स्मरण या स्मृति के रूप में प्रकट होती है तब कहा जाता है कि हमारा ‘चित्त’ कार्य कर रहा है । तथा जब वह स्वयं के अस्तित्व व महत्व को प्रकटित करने के लिए ‘अहम्’ अथवा ‘मैं’ शब्द का प्रयोग करती हैं तब कहते हैं ‘अहंकार’ या ‘अभिमान’ कार्य कर रहा है । इसलिए ये समस्त आत्मा की चेतना की केवल विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं । चैतन्य शक्ति ‘आत्मा’ द्वारा शरीर की कर्मेन्द्रियों के माध्यम से किये गये कर्म उस पर प्रभाव डालते हैं और इनसे प्रवृत्तियाँ, प्रवणताओं, दृष्टिकोण, लक्षणों, प्रेरणाओं, आवेगों का निर्माण होता है, जो आत्मा के ‘संस्कार’ कहलाते हैं ।
इसलिए ‘आत्मा’ मन-बुद्धि-संस्कार का सामूहिक रूप है । वास्तवतः आत्मा ही इन रूपों के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करती है जिनके लिए व्यावहारिक रीति से अलग-अलग नाम प्रदान किये गये हैं ।
सत्त्व-रजस्-तमस् : आत्मा के तीन गुण, न कि प्रकृति के
ब्रह्माकुमारी दर्शन यह विशेष रूप से प्रतिपादन करता है कि सत्त्व, रजस् एवं तमस् वास्तवतः प्रकृति के तीन गुण नहीं हैं, अपितु स्वयं आत्मा के ही हैं । आत्मा के गुणों के आधार से ही प्रकृति भी उसी अनुसार गुणयुक्त बनती है । प्रत्येक युग में मनुष्यात्माओं की अवस्था अथवा गुण परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही प्रकृति में भी गुण परिवर्तन होता है । आत्मा ही अपने विचारों, भावनाओं तथा कर्मों के आधार पर सत्त्वगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी कहलाती है । सत्ययुग में मनुष्यात्मा के मन, वचन, कर्म शुद्ध, सत्य व पवित्र थे इसलिए सत्त्वगुण प्रधान आत्मा थी । फलस्वरूप प्रकृति भी सत्वगुणयुक्त थी । परवर्ती युगों में आत्माओं के गुणों में क्षीणता आने के कारण प्रकृति भी क्रमशः रजोगुणी व तमोगुणी होती है । इसका एक दृष्टान्त के माध्यम से ब्र.कु. जगदीश स्पष्टीकरण करते हैं-
i. एक ही प्रकार की भूमि में गन्ना, नीम्बू और मीर्च बोये जाते हैं । यद्यपि भूमि की किस्म समान है तथापि प्रत्येक प्रकार का बीज पृथ्वी में अपने-अपने अनुसार ही परमाणु आकृष्ट करता है अथवा उसमें परिवर्तन लाता है । भूमि की मिट्टी न सारी मीठी, न खट्टी और न चटपटी । परन्तु बीज ही है जो अपने अनुसार भूमि के परमाणुओं में स्वाद-विशेष ला देता है अथवा स्वाद-विशेष ही के परमाणु अधिक मात्रा में आकृष्ट करता है । जैसे बीज जल, वायु और पृथ्वी तत्त्व को अपने अनुकूल कर लेता अथवा उसमें से अपने अनुकूल तत्त्व खींच लेता है, वैसे ही आत्मायें भी अपने ही गुणों के अनुसार प्रकृति में भी वैसा-वैसा गुण प्रधान करने के निमित्त बनती हैं ।
ii. पुनश्च अन्य एक उदाहरण द्वारा विषय को स्पष्ट किया जा रहा है । जैसे चुम्बक अपनी निकटता से लोहे में भी अपना गुण भर देता है, वैसे ही पुरुष रूप ‘आत्मा’ भी प्रकृति में अपने गुण के अनुसार ही गुणप्रधान कर देती है क्योंकि प्रकृति के गुण-परिवर्तन द्वारा ही उसे अपने गुणों का फल सुख-दुःख के रूप में भोगना होता है ।
वास्तवतः, चैतन्यशील आत्मा एक बीज के समान है जिसमें हर आवश्यक सूचना अथवा ज्ञान समाहित है जिसके माध्यम से वह स्वयं को प्रकट कर सकती है जब वह किसी मानव शरीर में प्रवेश करती है । जैसे किसी बीज को भूमि में डालते हैं, वह अपने अनुरूप एक पौधे को जन्म देता है तथा जल, प्रकाश व उर्वरक मृत्तिका के द्वारा पौधे का पोषण होता है । उसी प्रकार जब एक आत्मा भ्रूण के अन्दर में प्रवेश करती है तब मनुष्य को जीवन प्राप्त होता है । जिस क्षण आत्मा शरीर में प्रविष्ट होती है उस क्षण को ‘स्पन्दन’ नाम से अभिहित किया जाता है और इसकी सूचना भ्रूण की गर्भ में प्रथम गति से प्राप्त होती है । चैतन्य बीजरूप आत्मा अपने कर्मों एवं संस्कारों के अनुसार ही शरीर धारण करती है । संस्कार ही गुप्त वृत्तियों का, आदतों का व आचरण सम्बन्धी लक्षणों का स्वरूप ग्रहण कर लेता है ।
चेतना के अन्तर्वर्ती चक्रवत् प्रक्रिया
ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार ‘आत्मा’ की मन-बुद्धि-संस्कार रूपी तीनों शक्तियाँ एक-दूसरे से मिलकर चक्रवत् कार्य करती हैं । यह आन्तरिक चक्र है तथा एक ऐसा चक्र जो अन्तर्जगत् को बाह्य भौतिक जगत् से संयुक्त करता है । इसमें आत्मा की ऊर्जा शरीर के माध्यम से कर्म के रूप में परिवर्तित हो जाती है एवं वह कर्म पुनः संस्कार के रूप में प्रत्यावृत्त हो जाता है । अतः यह एक अन्तहीन तथा कभी न रूकने वाली प्रक्रिया है । विवेचना की दृष्टि से निम्न में प्रदर्शित किया जा रहा है-
1. मन में विचारों का समुदय होता है ।
2. विचारों में इतनी शक्ति होती है कि वह कार्य रूप में परिवर्तित हो जाते हैं ।
3. कार्य रूप में परिवर्तित होने से पहले विचार बुद्धि के समक्ष प्रकटित होता है जिसे ‘विवेक’ अथवा ‘नैतिक विवेक’ कहा जाता है ।
4. तत्पश्चात् इस पर निर्णय लिया जाता है और इसे स्वीकृत अथवा अस्वीकृत कर दिया जाता है ।
5. यदि इस विचार को स्वीकृत कर लिया जाता है तब इसे कार्य रूप प्रदान किया जाता है । (यह एक सदाकालीन विचार बन जाता है, वाणी के रूप में व्यक्त होता है अथवा कार्य रूप में प्रकट होता है ।
6. यदि विचारों को स्वीकार नहीं किया जाता है तब वह अदृश्य हो जाता है अथवा इस प्रकार का विचार उठना समाप्त हो जाता है ।
7. जब एक बार कोई कर्म कर लिया जाता है तब इसके कई प्रकार के प्रभाव परिलक्षित होते हैं ।
इसके प्रभाव के कारण प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है ।
यह संस्कार के निर्माण का कारक बनता है ।
यह इसी प्रक्रिया के नये विचारों को जन्म देने का कारण बनता है ।
यह बाह्य दुनिया को प्रति-उत्तर देने के लिए प्रेरित करता है ।
यह आत्मा पर एक आवरण बनाता है ।
8. विचारों, कर्मों एवं शब्दों का प्रभाव एवं स्मृति अन्तर्मन अथवा चित्त में बनी रहती हैं ।
9. कर्मों एवं अनुभवों का प्रभाव स्वप्न के रूप में समक्ष आ सकता है ।
10. एक नूतन विचार मन में उत्पन्न होता है और यह चक्र चलता रहता है ।
मन में विचारों का उदय मुख्यतः निम्न कारणों से होता है-
o पाँच इन्द्रियों (देखने, सुनने, स्पर्श करने आदि ) के प्रभाव से
o संपर्क से
o स्मृति से
o बुद्धि अथवा विवेक के स्फुरण से
o मौखिक अथवा लिखित आदेश, सूचना आदि के द्वारा
o संस्कार द्वारा
मनुष्य की आत्मा अथवा मानवीय चेतना में यह अत्यन्त जटिल किन्तु मौलिक प्रक्रियायें सतत चलती रहती हैं ।
इस प्रकार अभौतिक ऊर्जा ‘आत्मा’ के सम्बन्ध में ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन एक नवीन दृष्टिकोण के साथ विचारों को दार्शनिक एवं वैज्ञानिक जगत् के समक्ष प्रकटित करता है । वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक ज्ञान को समुचिततया समावेशित कर विषय की प्रासंगिकता को सिद्ध कर सर्वजनग्राह्य मत प्रदान करने में स्वकीय महत्त्वपूर्ण योगदान प्रस्तुत करता है । मन, बुद्धि आदि सूक्ष्म अभौतिक तत्त्वों के ऊपर सूक्ष्मरीत्या प्रकाश डाल कर विवेचना करना इस अध्यात्म-विज्ञान की अमूल्य प्रामाणिकता है ।
संदर्भग्रन्थसूची
1. प्रकृति, पुरुष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण
2. अविनाशी विश्व-नाटक, भाग-2, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान
3. ज्ञान-निधि, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, साहित्य विभाग, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, दिल्ली
4. ज्ञान-प्रवाह, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2000, द्वितीय संस्करण
5. Mysteries of the Universe, B.K Nityanand Nair, Prajapita Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Mount Abu, 2008
6. मूल्य शिक्षा एवं आध्यात्मिकता, ब्रह्माकुमारीज शैक्षणिक सोसायटी, आबू रोड, राजस्थान, 2006
7. राजयोग शिविर प्रवचनमाला, ब्रह्माकुमारी ऊषा, ब्रह्माकुमारीज ऑडियो विजुअल, शान्तिवन, आबू रोड, राजस्थान
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